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काकोरी कांड एवं साण्डर्स हत्याकांड
Table of Contents
19वीं शताब्दी के दूसरे एवं तीसरे दशक में क्रांतिकारी गतिविधियां
असहयोग आंदोलन के पश्चात् लोग क्रांतिकारी गतिविधियों की ओर आकर्षित क्यों हुए
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान क्रांतिकारी आतंकवाद का निर्ममता से दमन किया गया। अनेक क्रांतिकारी भूमिगत हो गये, कई जेल में डाल दिये गये तथा कई इधर-उधर बिखर गये। 1920 के प्रारम्भ में सरकार ने जेल में बंद विभिन्न क्रांतिकारी आतंकवादियों को आम माफी देकर रिहा कर दिया। इसका मुख्य उद्देश्य यह था कि सरकार मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों को लागू करने के लिये देश में सद्भावना का वातावरण बनाना चाहती थी । शीघ्र ही गांधीजी ने असहयोग आंदोलन प्रारम्भ कर दिया। इसके पश्चात् गांधीजी, सी. आर. दास तथा अन्य नेताओं की अपील पर जेल से रिहा क्रांतिकारी आतंकवादियों में से अधिकांश असहयोग आंदोलन में सम्मिलित हो गये तथा अन्य ने अहिंसक असहयोग आंदोलन को समर्थन देने के निमित्त आतंकवाद का रास्ता छोड़ दिया।
लेकिन गांधीजी द्वारा असहयोग आंदोलन को एकाएक स्थगित कर दिये जाने के कारण इनमें से अनेक अत्यधिक असंतुष्ट हो गये। जनआंदोलन की आंधी में सब कुछ छोड़कर असहयोग आंदोलन से जुड़ जाने के कारण वे महसूस करने लगे कि उनके साथ विश्वासघात किया गया है। इनमें से अधिकांश ने राष्ट्रीय नेतृत्व की रणनीति तथा अहिंसा के सिद्धांत पर प्रश्नचिन्ह लगाना प्रारम्भ कर दिया तथा किसी विकल्प की
तलाश करने लगे। स्वराजियों के संसदीय संघर्ष तथा परिवर्तन विरोधियों (नो चेंजर्स) के रचनात्मक कार्य भी इन युवाओं को आकृष्ट नहीं कर सके। इनमें से अधिकांश इस बात पर विश्वास करने लगे कि सिर्फ हिंसात्मक तरीके से ही स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है। इस प्रकार क्रांतिकारी आतंकवाद पुनर्जीवित हो उठा।
क्रांतिकारी आतंकवादी विचारधारा के सभी प्रमुख नेताओं ने असहयोग आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभायी। इनमें जोगेश चन्द्र चटर्जी, सूर्यसेन, भगत सिंह, सुखदेव, चन्द्रशेखर आजाद, शिव वर्मा, भगवती चरण वोहरा, जयदेव कपूर व जतिन दास के नाम सबसे प्रमुख हैं । इस काल में क्रांतिकारी आतंकवाद की दो विभिन्न धारायें विकसित हुईं – एक पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा बिहार में तथा दूसरी बंगाल में ।
प्रमुख प्रभावकारी कारक
(i) युद्ध के पश्चात् मजदूर तथा श्रमिक संघवाद का उदय क्रांतिकारी आतंकवादी नये उभरते हुए वर्ग की क्रांतिकारी ऊर्जा को राष्ट्रवादी क्रांति में लगाना चाहते थे ।
(ii) 1917 की रूसी क्रांति तथा युवा सोवियत राज्य का गठन ।
(iii) नये साम्यवादी समूहों का उदय; ये मार्क्सवाद, समाजवाद एवं दरिद्रतम श्रमिक वर्ग के हितों के पक्षधर थे ।
(iv) क्रांतिकारियों द्वारा प्रकाशित विभिन्न पुस्तकें एवं पत्र-पत्रिकायें; इनमें विभिन्न क्रांतिकारियों के त्याग एवं बलिदान का गुणगान किया गया। इनमें आत्मशक्ति, सारथी एवं बिजली का नाम उल्लेखनीय है ।
(v) उपन्यास एवं पुस्तकें; जैसे – सचिन सान्याल की बंदी जीवन तथा शरदचन्द्र चटर्जी द्वारा लिखित पाथेर दाबी प्रमुख थीं। (बाद में अत्यधिक लोकप्रिय होने के कारण सरकार ने पाथेर दाबी प्रकाशन पर प्रतिबंध लगा दिया ) ।
● पंजाब, उत्तर प्रदेश एवं बिहार में इस क्षेत्र में क्रांतिकारी आतंकवादी गतिविधियों का संचालन मुख्य रूप से हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन या आर्मी ने किया । (कालांतर में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन कर दिया गया)। हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच. आर. ए.) की स्थापना अक्टूबर 1924 में कानपुर में की गयी। कानपुर में क्रांतिकारी युवकों के एक अधिवेशन में रामप्रसाद बिस्मिल, योगेश चन्द्र चटर्जी एवं शचीन्द्रनाथ सान्याल ( सचिन सान्याल) ने अन्य क्रांतिकारियों के सहयोग से इसकी स्थापना की।
काकोरी कांड ( अगस्त 1925 )
हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का सबसे प्रमुख कार्य ‘काकोरी डकैती’ था। 9 अगस्त 1925 को एसोसिएशन के सदस्यों ने सहारनपुर-लखनऊ लाइन पर 8 डाउन रेलगाड़ी को काकोरी नामक गांव में रोककर रेल विभाग के खजाने को लूट लिया। सरकार इस घटना से अत्यन्त क्रोधित हो गयी । उसने भारी संख्या में आतंकवादियों को गिरफ्तार कर उन पर काकोरी षड़यंत्र का मुकदमा चलाया। रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खां, राजेन्द्र लाहिड़ी तथा रोशन सिंह को फांसी दे दी गयी, चार को आजीवन कारावास की सजा देकर अंडमान भेज दिया गया तथा 17 अन्य लोगों को लंबी सजायें सुनायी गयीं । चन्द्रशेखर आजाद फरार हो गये । काकोरी षड़यंत्र कांड से उत्तर भारत के क्रांतिकारियों को एक बड़ा आघात लगा लेकिन इससे क्रांतिकारी आतंकवाद का पूर्णतया दमन नहीं हो सका ।
काकोरी षड़यंत्र केस से क्रांतिकारी और भड़क उठे तथा कई और युवा क्रांतिकारी संघर्ष के लिये तैयार हो गये । उत्तर प्रदेश में शिव वर्मा, जयदेव कपूर तथा विजय कुमार सिन्हा तथा पंजाब में भगत सिंह, सुखदेव तथा भगवती चरण वोहरा ने चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन को पुनः संगठित करने का काम प्रारम्भ कर दिया। इन युवा क्रांतिकारियों पर धीरे-धीरे समाजवादी विचारधारा का प्रभाव भी पड़ने लगा । दिसम्बर 1928 में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में युवा क्रांतिकारियों की एक बैठक आयोजित की गयी, जिसमें युवा क्रांतिकारियों ने सामूहिक नेतृत्व को स्वीकारा तथा समाजवाद की स्थापना को अपना लक्ष्य निर्धारित किया। बैठक में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम बदलकर ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन‘ (एच. एस. आर. ए.) रख दिया गया ।
साण्डर्स हत्याकांड ( लाहौर, दिसम्बर 1928 )
धीरे-धीरे जब हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के क्रांतिकारी विध्वंसक तथा क्रांतिकारी गतिविधियों से दूर होते जा रहे थे, उसी समय नवम्बर 1928 में शेर-ए-पंजाब लाला लाजपत राय की लाठीचार्ज से हुई मृत्यु से वे पुनः भड़क उठे ।
1928 में लाहौर में साइमन कमीशन के भारत दौरे का विरोध करने हेतु एक प्रदर्शन आयोजित किया गया। प्रदर्शनकारियों का नेतृत्व लाला लाजपत राय कर रहे थे। लाहौर में सहायक पुलिस कप्तान शसाण्डर्स ने साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्शन कर रहे लोगों पर लाठी चार्ज का आदेश दे दिया। इसके परिणामस्वरूप लाला लाजपत राय को संघातिक चोट लगी तथा 15 नवम्बर 1928 को उनकी मृत्यु हो गयी। हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के तीन प्रमुख सदस्यों भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद तथा राजगुरु ने लाला लाजपत राय की मौत के लिये साण्डर्स को दोषी मानते हुए 17 दिसम्बर 1928 को साण्डर्स की हत्या कर दी। साण्डर्स की हत्या को इन शब्दों द्वारा न्यायोचित करार दिया गया–
देश के करोड़ों लोगों के सम्माननीय नेता की एक साधारण पुलिस अधिकारी के क्रूर हाथों द्वारा की गयी हत्या राष्ट्र का घोर अपमान है। भारत के देशभक्त युवाओं का यह कर्तव्य है कि वे इस कायरतापूर्ण हत्या का बदला लें… हमें साण्डर्स की हत्या का अफसोस है किन्तु वह उस अमानवीय व्यवस्था का एक अंग था, जिसे नष्ट करने के लिये हम संघर्ष कर रहे हैं ।”
भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद तथा राजगुरु