भारत में प्रेस का विकास (Development of Press in India))

भारत में प्रेस का विकास

Bharat me press ka vikas anugyapti adhiniyam panjikaran adhiniyam vernacular press act kya tha

भारत में प्रेस का विकासभारत का पहला समाचार-पत्र जेम्स आगस्टस हिक्की ने 1780 में प्रकाशित किया, जिसका नाम था द बंगाल गजट या कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर। किंतु सरकार के प्रति आलोचनात्मक रवैया अपनाने के कारण 1872 में इसका मुद्रणालय जब्त कर लिया गया।

तदन्तर कई और समाचार-पत्रों जर्नलों का प्रकाशन प्रारंभ किया गया। यथा-द बंगाल जर्नल, कलकत्ता क्रॉनिकल, मद्रास कुरियर तथा बाम्बे हैराल्ड इत्यादि। अंग्रेजी हुकूमत के अधिकारी इस बात से भयभीत थे कि यदि ये समाचार-पत्र लंदन पहुंच गये तो उनके काले कारनामों का भंडाफोड़ हो जायेगा। इसलिये उन्होंने प्रेस के प्रति दमन की नीति अपनाने का निश्चय किया।

प्रारंभिक विनियमन

समाचार-पत्रों का पत्रेक्षण अधिनियम, 1799

फ्रांसीसी आक्रमण के भय से लार्ड वेलेजली ने इसे लागू किया तथा सभी समाचार-पत्रों पर सेंसर लगा दिया। इस अधिनियम द्वारा सभी समाचार-पत्रों के लिये आवश्यक कर दिया गया कि वो अपने स्वामी, संपादक और मुद्रक का नाम स्पष्ट रूप से समाचार-पत्र में अंकित करें। इसके अतिरिक्त समाचार-पत्रों को प्रकाशन के पूर्व सरकार के सचिव के पास पूर्व-पत्रेक्षण (Pre-censorship) के लिये समाचार-पत्रों को भेजना अनिवार्य बना दिया गया।

लार्ड हेस्टिंग्स के उदारवादी और प्रगतिशील रवैये के कारण इन नियमों में ढील दे दी गयी। 1818 में समाचार-पत्रों का पूर्व-पत्रेक्षण बंद कर दिया गया।

अनुज्ञप्ति नियम, 1823

प्रतिक्रियावादी गवर्नर-जनरल जॉन एडम्स ने 1823 में इन नियमों को आरोपित किया। इस नियम के अनुसार, बिना अनुज्ञप्ति लिये प्रेस की स्थापना या उसका उपयोग दंडनीय अपराध माना गया। ये नियम, मुख्यतया उन समाचार-पत्रों के विरुद्ध आरोपित किये गये थे, जो या तो भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होते थे या जिनके स्वामी भारतीय थे। इस नियम द्वारा राजा राममोहन राय की पत्रिका मिरात-उल-अखबार का प्रकाशन बंद करना पड़ा। .

प्रेस अधिनियम या मेटकॉफ अधिनियम, 1835 (Press act of 1835 by Metcalfe)

कार्यवाहक गवर्नर-जनरल चार्ल्स मेटकॉफ ने भारतीय प्रेस के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण अपनाया तथा 1823 के कुत्सित अनुज्ञप्ति नियमों को रद्द कर दिया। इस प्रयास के कारण मेटकॉफ को ‘भारतीय समाचार-पत्रों के मुक्तिदाता‘ की संज्ञा दी गयी। 1835 के इस नये प्रेस अधिनियम के अनुसार, प्रकाशक या मुद्रक को केवल प्रकाशन के स्थान की निश्चित सूचना ही सरकार को देनी थी और वह आसानी से अपना कार्य कर सकता था। यह कानून 1856 तक चलता रहा तथा इस अवधि में। देश में समाचार-पत्रों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।

अनुज्ञप्ति अधिनियम, 1857

1857 के विद्रोह से उत्पन्न हुई आपातकालीन स्थिति से निपटने के लिये 1857 के अनुज्ञप्ति अधिनियम से अनुज्ञप्ति व्यवस्था पुनः लागू कर दी गयी। इस अधिनियम के तहत बिना अनुज्ञप्ति के मुद्रणालय रखना और उसका प्रयोग करना अवैध घोषित कर दिया गया। सरकार को यह अधिकार दे दिया गया कि वह किसी समाचार-पत्र को किसी समय अनुज्ञप्ति दे सकती थी या उसकी अनुज्ञप्ति को रद्द कर सकती थी। अधिनियम द्वारा सरकार को यह अधिकार भी दिया गया कि वह समाचार-पत्र के साथ ही किसी पुस्तक, पत्रिका, जर्नल या अन्य प्रकाशित सामग्री पर प्रतिबंध लगा सकती थी। यद्यपि यह एक संकटकालीन अधिनियम था तथा इसकी अवधि केवल एक वर्ष थी।

पंजीकरण अधिनियम, 1867

इस अधिनियम द्वारा मैटकॉफ के अधिनियम को परिवर्तित कर दिया गया। इस अधिनियम का उद्देश्य, प्रेस एवं समाचार-पत्रों पर प्रतिबंध लगाना नहीं, अपितु उन्हें । नियमित करना था। अब यह आवश्यक बना दिया गया कि किसी भी मुद्रित सामग्री पटक प्रकाशक तथा मुद्रण स्थान के नाम का उल्लेख करना अनिवार्य होगा। इसके अतिरिक्त प्रकाशन के एक माह के अंदर पुस्तक की एक निःशुल्क प्रति स्थानीय सरकार को देना आवश्यक था।

प्रेस की स्वतंत्रता को बचाने के लिये प्रारंभिक राष्ट्रवादियों द्वारा किये गये प्रयास 19वीं शताब्दी के प्रारंभ से ही नागरिक स्वतंत्रताओं की रक्षा का मुद्दा, जिनमें प्रेस की स्वतंत्रता का मुद्दा सबसे प्रमुख था, राष्ट्रवादियों के घोषणा-पत्र में सबसे प्रमुख स्थान बनाये हुये था। 1824 में राजा राममोहन राय ने उस अधिनियम की तीखी आलोचना की, जिसके द्वारा प्रेस पर प्रतिबंध लगाया गया था।

1870 से 1918 के मध्य राष्ट्रीय आंदोलन का प्रारंभिक चरण कुछ प्रमुख मुद्दों पर रहा। इन मुद्दों में भारतीयों को राजनीतिक मूल्यों से अवगत कराना, उनके मध्य शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना, राष्ट्रवादी विचारधारा का निर्माण एवं प्रसार, जनमानस को प्रभावित करना तथा उसमें उपनिवेशी शासन के विरुद्ध राष्ट्रप्रेम की भावना जागृत करना, जन-प्रदर्शन या भारतीयों को जुझारू राष्ट्रवादी कार्यप्रणाली से अवगत कराना एवं उन्हें उस ओर मोड़ना प्रमुख थे। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये प्रेस, राष्ट्रवादियों का सबसे उपयुक्त औजार साबित हुआ। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी अपने प्रारंभिक दिनों से ही प्रेस को पूर्ण महत्व प्रदान किया तथा अपनी नीतियों एवं बैठकों में पारित किये गये प्रस्तावों को भारतीयों तक पहुंचाने में इसका सहारा लिया।

इन वर्षों में कई निर्भीक एवं प्रसिद्ध पत्रकारों के संरक्षण में अनेक नये समाचार-पत्रों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इन समाचार-पत्रों में प्रमुख थे- हिन्दू एवं स्वदेश मित्रजी सुब्रह्मण्यम अय्यर के संरक्षण में, द बंगाली सुरेंद्रनाथ बनर्जी के संरक्षण में, वॉयस आफ इंडिया दादा भाई नौरोजी के संरक्षण में, अमृत बाजार पत्रिका शिशिर कुमार घोष एवं मोतीलाला घोष के संरक्षण में, इंडियन मिरर एन.एन. सेन के संरक्षण में, केसरी (मराठी में) एवं मराठा (अंग्रेजी में) बाल गंगाधर तिलक के संरक्षण में, सुधाकर गोपाल कृष्ण गोखले के संरक्षण में तथा हिन्दुस्तान एवं एडवोकेट जी.पी.वर्मा के संरक्षण में। इस समय के अन्य प्रमुख समाचार-पत्रों में-ट्रिब्यून एवं अखबार-ए-एम पजाब में, गजराती. इंद प्रकाश ध्यान, प्रकाश एवं काल बंबई में तथा सोम प्रकाश, बगनिवासी एवं साधारणी बंगाल में उल्लेखनीय थे।

इन समाचार-पत्रों के प्रकाशन का मुख्य उद्देश्य, राष्ट्रीय एवं नागरिक सेवा की ना थी न कि धन कमाना या व्यवसाय स्थापित करना । इनकी प्रसार संख्या काफी क थी तथा इन्होंने पाठकों के मध्य व्यापक प्रभाव स्थापित कर लिया था। शीघ्र ही वाचनालयों (लाइब्रेरी) में इन समाचार-पत्रों की विशिष्ट छवि बन गयी। इन समाचार-पत्रों की पहुंच एवं प्रभाव सिर्फ शहरों एवं कस्बों तक ही नहीं था, अपितु ये देश के दूर-दूर के गावों तक पहुंचते थे, जहां पूरा का पूरा गांव स्थानीय वाचनालय (लाइब्रेरी) में इकट्ठा होकर इन समाचार-पत्रों में प्रकाशित खबरों को पढ़ता था एवं उस पर चर्चा करता था। इस परिप्रेक्ष्य में इन वाचनालयों में इन समाचार-पत्रों ने न केवल भारतीयों को राजनीतिक रूप से शिक्षित किया अपितु उन्हें राजनीतिक भागीदारी हेतु भी प्रोत्साहित एवं विकसित किया। इन समाचार-पत्रों में सरकार की भेदभावपूर्ण एवं दमनकारी नीतियों की खुलकर आलोचना की जाती थी। वास्तव में इन समाचार-पत्रों ने सरकार के सम्मुख विपक्ष की भूमिका निभायी।

सरकार ने प्रेस के दमन के लिये विभिन्न कानूनों का सहारा लिया। उदाहरणार्थ- भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code) की धारा-124ए के द्वारा सरकार को यह अधिकार दिया गया कि वह ऐसे किसी भी व्यक्ति को, जो भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लोगों में असंतोष उत्पन्न कर रहा हो या उन्हें सरकार के विरुद्ध भड़का रहा हो, उसे गिरफ्तार कर सरकार तीन वर्ष के लिये कारावास में डाल सकती है या देश से निर्वासित कर सकती है। लेकिन निर्भीक राष्ट्रवादी पत्रकार, सरकार के इन प्रयासों से लेशमात्र भी भयभीत नहीं हुए तथा उपनिवेशी शासन के विरुद्ध उन्होंने अपना अभियान जारी रखा। सरकार ने समाचार-पत्रों को सरकारी नीति के पक्ष में लिखने हेतु प्रोत्साहित किया तथा उन्हें लालच दिया, जबकि वे समाचार-पत्र जो सरकारी नीतियों एवं कार्यक्रमों की भर्त्सना करते थे, उनके प्रति सरकार ने शत्रुतापूर्ण नीति अपनायी।

इन परिस्थितियों में राष्ट्रवादी पत्रकारों के सम्मुख यह एक चुनौती भरा कार्य था कि वे उपनिवेशी शासन के प्रयासों एवं षड़यंत्रों को सार्वजनिक करें तथा भारतीयों को वास्तविकता से अवगत करायें। इन परिस्थितियों में पत्रकारों में स्पष्टवादिता, निष्पक्षता, निर्भीकता एवं विद्वता जैसे गुणों का होना अपरिहार्य था।

राष्ट्रीय आंदोलन, प्रारंभ से ही प्रेस की स्वतंत्रता का पक्षधर था। लार्ड लिटन के शासनकाल में उसकी प्रतिक्रियावादी नीतियों एवं अकाल (1876-77) पीड़ितों के प्रति उसके अमानवीय रवैये के कारण भारतीय समाचार-पत्र सरकार के घोर आलोचक बन गये। फलतः सरकार ने 1878 में देशी भाषा समाचार-पत्र अधिनियम (vernacular press Act) द्वारा भारतीय प्रेस को कुचल देने का प्रयास किया।

वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, 1878 (Vernacular Press Act)

Vernacular press act viceroy – लार्ड लिटन

1857 की महान क्रांति का एक प्रमुख परिणाम था-शासक और शासितों के बीच संबंधों में कटता। 1858 के पश्चात यूरोपीय प्रेस ने सरकार की नीतियों का समर्थन किया तथा विवादास्पद मामलों में सरकारी पक्ष का साथ दिया, किंतु देशी भाषाओं के प्रेस सरकारी नीतियों के तीव्र आलोचक थे। लार्ड लिटन की प्रतिक्रियावादी नीतियों के कारण भारतीयों में सरकार के विरुद्ध तीव्र असंतोष था। 1876-77 में भीषण अकाल से एक ओर जहां लाखों लोग मौत के मुंह से समा गये, वहीं दूसरी ओर, जनवरी 1877 में दिल्ली में भव्य दरबार का आयोजन किया गया। इन सभी कारणों से भारतीयों में उपनिवेशी शासन के विरुद्ध घृणा की भावना निरंतर बढ़ रही थी। दूसरी ओर लॉर्ड लिटन ने यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीयों में इस असंतोष का कारण मैकाले एवं मैटकॉफ की गलत नीतियां थीं। फलतः उसने भारतीयों की भावनाओं को दबाने का निर्णय लिया।

1878 के देशी भाषा समाचार-पत्र अधिनियम (वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट) को बनाने का उद्देश्य, भारतीय भाषाओं के समाचार-पत्रों पर सरकारी नियंत्रण स्थापित करना तथा राजद्रोही लेखों को दबाना एवं ऐसे प्रयास के लिये समाचार-पत्रों को दंडित करना था। इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान निम्नानुसार थे

1. जिला दण्डनायकों (District magistrate) को यह अधिकार दिया गया कि वे स्थानीय सरकार की आज्ञा से किसी भी भारतीय भाषा के समाचार-पत्र के प्रकाशक या मुद्रक को बुलाकर बंधन-पत्र (Bond) पर हस्ताक्षर करने के लिये कह सकते हैं। इस बंधन-पत्र में यह प्रावधान था कि ये प्रकाशक या मुद्रक ऐसी कोई भी सामग्री प्रकाशित नहीं करेंगे, जिससे सरकार के विरुद्ध असंतोष भड़के अथवा साम्राज्ञी की प्रजा के विभिन्न जाति, धर्म और वर्ण के लोगों के मध्य आपसी वैमनस्य बढ़े।

दण्डनायक का निर्णय अंतिम होगा तथा उसके विरुद्ध किसी प्रकार की अपील की अनुमति नहीं होगी।

3. देशी भाषा का कोई समाचार-पत्र यदि इस अधिनियम की कार्यवाही से बचना चाहे तो उसे पहले से अपने पत्र की एक प्रमाण प्रति (Proof copy) सरकारी पत्रेक्षण को देनी होगी।

इस अधिनियम को ‘मुंह बंद करने वाले अधिनियम’ की संज्ञा दी गयी। इस अधिनियम का सबसे घृणित पक्ष यह था कि-

(i) इसके द्वारा अंग्रेजी एवं देशी भाषा के समाचार-पत्रों के मध्य भेदभाव किया गया था; एवं

(ii) इसमें अपील करने का कोई अधिकार नहीं था।

इस अधिनियम के तहत भारत मिहिर, सोम प्रकाश, सहचर, ढाका प्रकाश तथा अनेक अन्य समाचार पत्रों के विरुद्ध मामले दर्ज किये गये।

(संयोगवश, इस अधिनियम की कार्यवाही से बचने के लिये अमृत बाजार पत्रिका रातोंरात अंग्रेजी समाचार पत्र में परिवर्तित हो गयी)।

कालांतर में (सितम्बर 1878 से), पूर्व पत्रेक्षण (Pre-censorship) की धारा हटा दी गयी तथा उसके स्थान पर प्रेस आयुक्त की नियुक्ति की गयी, जिसका कार्य समाचार-पत्रों को विश्वसनीय एवं सही जानकारी उपलब्ध कराना था।

इस अधिनियम के विरुद्ध सारे देश में तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की गयी तथा अंततः 1882 में उदारवादी गवर्नर-जनरल लार्ड रिपन ने इसे रद्द कर दिया।

1883 में सुरेंद्रनाथ बनर्जी देश के ऐसे प्रथम पत्रकार बने, जिन्हें कारावास की सजा दी गयी। श्री बनर्जी ने द बंगाली के आलोचनात्मक संपादकीय में कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पर, एक निर्णय में बंगाली समुदाय की धार्मिक भावनाओं को आहत करने का आरोप लगाया तथा उनकी निंदा की।

प्रेस की स्वतंत्रता के लिये किये जा रहे राष्ट्रवादी प्रयासों में बाल गंगाधर तिलक की भूमिका भी महत्वपूर्ण थी। तिलक ने 1893 में गणपति उत्सव एवं 1896 में शिवाजी उत्सव प्रारंभ करके लोगों में देशप्रेम की भावना जगाने का प्रयास किया। उन्होंने अपने पत्रों मराठा एवं केसरी के द्वारा भी अपने प्रयासों को आगे बढ़ाया। वे प्रथम कांग्रेसी थे, जिन्होंने समाज के मध्यवर्गीय लोगों, किसानों, शिल्पकारों, दस्तकारों, कारीगरों तथा मजदूरों को कांग्रेस से जोड़ने का प्रयास किया। 1896 में कपास पर उत्पाद-शुल्क आरोपित करने के विरोध में उन्होंने पूरे महाराष्ट्र में विदेशी कपड़ों के बहिष्कार का अभियान चलाया। 1896-97 में उन्होंने महाराष्ट्र में ही ‘कर ना अदायगी’ अभियान चलाया तथा किसानों से आग्रह किया कि फसल बर्बाद हो जाने की स्थिति में वे सरकार को लगान अदा न करें। 1897 में पूना में भयंकर प्लेग फैला। यद्यपि तिलक, प्लेग से निपटने के सरकारी प्रयासों के समर्थक थे किंतु इस संबंध में सरकार द्वारा उठाये गये कदमों का लोगों ने तीव्र विरोध किया। इसी संबंध में पूना में प्लेग समिति के अध्यक्ष की चापेकर बंधुओं ने गोली मारकर हत्या कर दी। सरकार की अकाल, मुद्रा एवं कर नीतियों ने भी लोगों में तीव्र असंतोष को जन्म दिया।

सरकार, लोगों में उभरती इन विद्रोही भावनाओं तथा भारतीय प्रेस के सरकार विरोधी रवैये से अत्यंत क्षुब्ध थी तथा इनके दमन के लिये उचित अवसर की प्रतीक्षा कर रही थी। अतः सरकार ने जनता के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत करने के लिये तिलक को अपराधी घोषित करने का निश्चय किया। तत्पश्चात तिलक द्वारा केसरी में शिवाजी की महिमा का गुणगान करने के लिये एक कविता लिखने तथा शिवाजी महोत्सव के समय तिलक द्वारा एक भाषण में शिवाजी द्वारा अफजल खां की हत्या को सही ठहराने के आधार पर सरकार ने, रैंड की हत्या के पश्चात तिलक को गिरफ्तार कर लिया। सरकार ने उन पर आरोप लगाया कि वे शिवाजी द्वारा अफजल खां की हत्या की घटना को भारतीयों द्वारा ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या की घटना के रूप में चित्रित कर रहे हैं। तिलक को इस अपराध का दोषी ठहराकर उन्हें 18 माह के सश्रम कारावास की सजा दी गयी। इसके पश्चात बम्बई प्रेसीडेंसी के कई अन्य संपादकों को भी विभिन्न आरोपों में गिरफ्तार किया गया तथा उन्हें कठोर सजायें दी गयीं। सरकार की इन कायरतापूर्ण कार्रवाइयों की पूरे देश में निंदा की गयी। गिरफ्तारी के पश्चात बाल गंगाधर तिलक रातोंरात राष्ट्रीय नायक बन गये तथा उन्हें ‘लोकमान्य’ (लोगों द्वारा आदरणीय एवं सम्माननीय) की उपाधि से विभूषित किया गया। पूरे देश में तिलक की प्रसिद्धि फैल गयी।

1898 में एक अधिनियम द्वारा दण्ड संहिता की धारा 124-ए को पुनः स्थापित और विस्तृत किया गया और उसमें एक नयी धारा 153-ए जोड़ दी गयी। इस धारा में यह प्रावधान था कि किसी व्यक्ति द्वारा भारत सरकार की अवमानना करने या लोगों को राज्य के विरुद्ध कार्य करने की प्रेरणा देने या समाज के विभिन्न वर्गों के बीच घृणा फैलाने की कार्यवाही को दण्डनीय अपराध माना जायेगा। इस नियम के विरुद्ध भी पूरे राष्ट्र में व्यापक प्रदर्शन किये गये। स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन तथा क्रांतिकारी राष्ट्रवाद के उदय के समय भी भारतीयों पर अनेक दमनकारी कानून आरोपित किये गये।

समाचार-पत्र अधिनियम, 1908 (The News Paper Act, 1908)

का उद्देश्य, उग्रवादी राष्ट्रवादी गतिविधियों पर अंकुश लगाना था। अधिनियम द्वारा दण्डनायकों को यह अधिकार दिया कि वे किसी ऐसे समाचार-पत्र की सम्पत्ति व मुद्रणालय को जब्त कर सकते हैं, जिसमें प्रकाशित सामग्री से लोगों को हिंसा करने या हत्या करने की प्रेरणा मिलती हो।

भारतीय समाचार-पत्र अधिनियम, 1910 (The Indian Press Act, 1910)

द्वारा लॉर्ड लिटन के 1878 के अधिनियम के सभी घिनौने प्रावधानों को पुनर्जीवित कर दिया गया। इस अधिनियम के अनुसार, स्थानीय सरकारें किसी समाचार-पत्र के प्रकाशक या मुद्रणालय के स्वामी से पंजीकरण जमानत (Registration Security) मांग सकती थीं। इस पंजीकरण जमानत की न्यूनतम राशि 500 रुपये व अधिकतम राशि 2000 रुपये तय की गयी। इसके अतिरिक्त सरकार को जमानत जब्त करने एवं पंजीकरण रद्द करने का अधिकार भी दिया गया। सरकार को पुनः पंजीकरण के लिये न्यूनतम 1000 रुपये और अधिकतम 10 हजार रुपये मांगने का अधिकार था। यदि समाचार-पत्र पुनः आपत्तिजनक सामग्री प्रकाशित करे तो उसका पंजीकरण रद्द कर उसकी सभी सम्पत्तियों तथा उसके मुद्रणालय को जब्त करने का अधिकार भी सरकार को दिया गया।

एक उग्रवादी राष्ट्रवादी नेता की छवि के कारण बाल गंगाधर तिलक को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया तथा देश से निर्वासन की सजा देकर 6 वर्ष के लिये मांडले जेल (रंगून) भेज दिया गया। पूरे राष्ट्र में तिलक की गिरफ्तारी एवं निर्वासन का विरोध हआ तथा सरकार के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन किये गये। बंबई में कपडा मिल मजदूरों तथा रेलवे कारखानों के मजदूरों ने हड़ताल कर दी तथा सरकार के विरुद्ध सड़कों पर उतर आये। रूस के साम्यवादी नेता लेनिन ने मजदूरों की इस हड़ताल का स्वागत किया और कहा कि यह हड़ताल भारत के श्रमिक वर्ग की राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी का एक शुभ संकेत है।

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान एवं उसके पश्चात् प्रथम विश्व युद्ध के दौरान सरकारी आलोचना को रोकने तथा राजनीतिक प्रदर्शनों का दमन करने के लिये भारतीयों पर अनेक कानून लागू कर दिये गये। 1921 में, तेज बहादुर सप्रू की अध्यक्षता में ‘प्रेस समिति‘ ने सरकार से 1908 एवं 1910 के अधिनियमों को रद्द करने की सिफारिश की। तत्पश्चात इन अधिनियमों को रद्द कर दिया गया।

भारतीय समाचार-पत्र (संकटकालीन शक्तियां) अधिनियम, 1931

द्वारा प्रांतीय सरकारों को सविनय अवज्ञा आंदोलन को दबाने के लिये अत्यधिक शक्तियां दे दी गयीं। 1932 में इस अधिनियम का विस्तार करके इसे आपराधिक संशोधित अधिनियम (Criminal Amendment Act) बना दिया गया। इसमें वे सभी गतिविधियां सम्मिलित कर दी गयीं, जिनसे सरकार की प्रभुसत्ता को हानि पहुंचायी जा सकती थी।

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