भारतीय रियासतों के प्रति ब्रिटिश नीति

भारतीय रियासतों के प्रति ब्रिटिश नीति


भारतीय रियासतों के प्रति ब्रिटिश नीति भारतीय रियासतों के साथ अंग्रेजों के संबंध दो चरणीय नीति से निर्देशित थे-

पहली, साम्राज्य की रक्षा के लिये उनसे संबंधों की स्थापना एवं उनका उपयोग तथा

दूसरा, उन्हें पूर्णतया साम्राज्य के अधीन कर लेना (अधीनस्थ संघीय नीति)।

भविष्य में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध होने वाले किसी राजनीतिक आंदोलन के समय इन देशी रियासतों को मध्यस्थ के रूप में प्रयुक्त करने तथा 1857 के विद्रोह के समय इनकी राजभक्ति हेतु इन्हें पुरस्कृत के लिये सरकार ने विलय की नीति त्याग दी। अब नयी नीति शासकों को पदच्युत करने या उन्हें दंड देने की थी न कि उनके राज्य को विलय करने की। इसके साथ ही रियासतों को उनकी क्षेत्रीय अखंडता की गारंटी भी दी गयी तथा घोषणा की गयी कि सरकार रियासतों द्वारा किसी उत्तराधिकारी को गोद लेने के अधिकार का सम्मान करेगी।

भारतीय रियासतों के प्रति ब्रिटिश नीति

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1876 में ब्रिटिश संसद ने ‘रायल टाइटल्स‘ नामक एक अधिनियम पारित किया, जिससे ब्रिटेन की साम्राज्ञी विक्टोरिया ने समस्त ब्रिटिश प्रदेशों तथा देशी रियासतों समेत कैसर-ए-हिन्द अथवा ‘भारत की साम्राज्ञी‘ की उपाधि धारण कर ली।

बाद में लार्ड कर्जन ने स्पष्ट किया कि सभी रजवाड़े अपने-अपने राज्यों (रियासतों) में ब्रिटिश ताज के प्रतिनिधि के रूप में शासन करेंगे। बाद में भी ब्रिटिश सरकार ने राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के अधिकार द्वारा अपनी ‘सर्वोच्च श्रेष्ठता‘ की नीति को बनाये रखा। सरकार इन राज्यों में अपने रेजिडेंट नियुक्त कर या अधिकारियों की नियुक्ति या बर्खास्तगी संबंधी मामलों में हस्तक्षेप कर अपने हस्तक्षेप करने के अधिकार का पक्षपोषण करती रही।

कालांतर में ब्रिटिश सरकार ने संचार, रेलवे, सड़क, टेलीग्राफ, नहरों, पोस्ट-आफिस आदि का इन राज्यों में आधुनिक ढंग से विकास किया तथा इन माध्यमों द्वारा भी उसे राज्यों में दखल देने का अवसर बराबर मिलता रहा। राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप करने का सरकार का एक उद्देश्य यह था कि इससे राष्ट्रवाद के उदय एवं लोकतांत्रिक भावनाओं के प्रसार को रोका जा सके। लेकिन इन आधुनिक राजनीतिक आंदोलनों का सकारात्मक पक्ष यह था कि इन प्रयासों से अंग्रेजों ने इन राज्यों में आधुनिक प्रशासनिक संस्थाओं को अपनाने हेतु प्रोत्साहित किया।

भारत में ब्रिटिश विदेश नीति

न की विदेश नीति ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हितों की संरक्षक थी। किंतु विदेश नीति स्वरूप ऐसा था कि इसने समय-समय पर पड़ोसी देशों के साथ विवादों को भी जन्म या। इन विवादों के कई कारण थे। प्रथम, संचार के आधुनिक साधनों के प्रयोग ने भारत को राजनीतिक एवं प्रशासनिक रूप से एक सूत्र में आबद्ध कर दिया। इसके साथ ही देश की रक्षा एवं अन्य कार्यों के निमित्त सरकार एवं प्रशासन की पहंच देश के दरदराज एवं सीमावर्ती क्षेत्रों में आसान हो गयी। इसके फलस्वरूप सीमावर्ती क्षेत्रों में झड़पें होने लगीं।

द्वितीय, ब्रिटिश सरकार का एक प्रमुख उद्देश्य यह था कि वह एशिया एवं अफ्रीका में

(1) अमूल्य भारतीय साम्राज्य की सुरक्षा सुनिश्चित करे।

(2) ब्रिटेन के वाणिज्यिक एवं आर्थिक हितों का विस्तार करे। तथा

(3) ब्रिटेन की प्रतिद्वंद्वी अन्य साम्राज्यवादी शक्तियों से अपने उपनिवेशों तथा अपने हितों की रक्षा करे तथा उन्हें अक्षुण्ण बनाये रखे।

इन उद्देश्यों के कारण ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासकों ने भारत के सीमाक्षेत्र से बाहर अनेक विजयें की तथा अपने साम्राज्य का विस्तार किया किंतु इस क्रम में उसकी तत्कालीन अन्य साम्राज्यवादी ताकतों यथा-रूस एवं फ्रांस से झड़पें भी हुईं।

जबकि, इन सभी कार्यों में ब्रिटेन के स्वार्थों की पूर्ति हो रही थी, भारत के धन को अंधाधुंध तरीके से व्यय किया जा रहा था एवं भारतीयों का खून बह रहा था।

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