मार्च 1922 में गांधीजी की गिरफ्तारी के पश्चात् राष्ट्रवादी खेमें में बिखराव आने लगा, संगठन टूटने लगा तथा जुझारू राष्ट्रवादी नेताओं का मनोबल कमजोर पड़ने लगा। इन परिस्थितियों में कांग्रेसियों के मध्य यह बहस छिड़ गयी कि संक्रमण के इस काल में कौन-सा रास्ता अख्तियार किया जाये । बहुत से लोगों ने गांधीजी की रणनीति एवं नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह लगाना प्रारम्भ कर दिया। दूसरे लोग इस गतिरोध से उबरने का विकल्प ढूढ़ने लगे ।
कांग्रेस-खिलाफत स्वराज्य पार्टी
कांग्रेस का एक खेमा, जिसका नेतृत्व सी. आर. दास, मोतीलाल नेहरू एवं अजमल खान कर रहे थे, ये लोग चाहते थे, कि राष्ट्रवादी आंदोलनकारी विधान परिषदों (लेजिस्लेटिव काउंसिलों) का बहिष्कार बंद कर दें। इनका विचार था कि वे असहयोग को व्यवस्थापिका सभाओं तक ले जाकर सरकारी प्रस्तावों का विरोध करेंगे तथा सरकारी मशीनरी के कार्यों में रुकावट डालने का प्रयास करेंगे।
इनका तर्क था कि यह युक्ति असहयोग आंदोलन का परित्याग नहीं, अपितु उसे प्रभावी बनाने की रणनीति है। यह संघर्ष का एक नया मोर्चा सिद्ध होगा। दूसरे शब्दों में, उनका उद्देश्य विधान परिषदों को अपने अनुकूल ‘मोड़ना’ या समाप्त करना था । उदाहरणार्थ- यदि सरकार राष्ट्रवादियों की मांगों की उपेक्षा करती है तो वे व्यवस्थापिकाओं के कार्य संचालन को अवरुद्ध कर देंगे तथा सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित करने हेतु उसे विवश करेंगे।
Pro Changers & No Changers
वे लोग जो विधान परिषदों में प्रवेश की वकालत कर रहे थे, उन्हें स्वराजियों परिवर्तन समर्थक (Pro Changers) के नाम से जाना गया। जबकि वे लोग जो विधान परिषदों में प्रवेश के पक्षधर नहीं थे तथा स्वराजियों के प्रस्ताव का विरोध कर रहे थे, उन्हें परिवर्तन विरोधी (No Changers) कहा गया। इस विचारधारा के समर्थकों में वल्लभभाई पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, सी. राजगोपालाचारी तथा एम. ए: अन्सारी प्रमुख थे। परिवर्तन विरोधियों ने विधान परिषदों में प्रवेश के प्रस्ताव का विरोध किया । इनका तर्क था कि संसदीय कार्यों में संलग्न होने से रचनात्मक कार्यों की उपेक्षा होगी ।
दिसम्बर 1922 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन गया में हुआ । इस अधिवेशन में सी.आर. दास तथा मोतीलाल नेहरू ने नये कार्यक्रम से सम्बद्ध एक प्रस्ताव रखा तथा तर्क दिया कि इससे या तो विधान परिषदों का स्वरूप परिवर्तित होगा या वे समाप्त हो जायेंगी। किन्तु कांग्रेस के दूसरे खेमे ने, जो परिवर्तन विरोधी था तथा जिसका नेतृत्व वल्लभभाई पटेल, सी. राजगोपालाचारी और राजेन्द्र प्रसाद कर रहे थे, इसका तीव्र विरोध किया तथा प्रस्ताव नामंजूर हो गया। तत्पश्चात् सी. आर. दास और मोतीलाल नेहरू ने, जो गया अधिवेशन में क्रमशः अध्यक्ष एवं महामंत्री थे, अपने-अपने पदों से त्यागपत्र दे दिया तथा कांग्रेस- खिलाफत स्वराज्य पार्टी के गठन की घोषणा कर दी। सी.आर. दास उसके अध्यक्ष तथा मोतीलाल नेहरू सचिव चुने गये ।
स्वराजियों का तर्क
- स्वराजियों का तर्क था कि विधान परिषदों में प्रवेश से असहयोग आंदोलन की प्रगति अवरूद्ध नहीं होगी अपितु इससे आंदोलन और प्रभावी बनेगा तथा इससे संघर्ष के नये द्वार खुलेंगे।
- कांग्रेस के बहिष्कार के बावजूद भी विधान परिषदें तो अस्तित्व में बनी ही रहेंगी और चुनावों में संभवतः बड़े पैमाने पर लोग भाग लेंगे। इससे जनता पर कांग्रेस का प्रभाव कम हो जायेगा तथा महत्वपूर्ण पदों पर गैर-कांग्रेसी व्यक्ति आसीन हो जायेंगे, जो कांग्रेस को कमजोर बनाने का प्रयास करेंगे। ये सरकार के अवैध कानूनों को वैध बनाने के प्रयास का समर्थन करेंगे।
- विधान परिषदों में प्रवेश का उनका मुख्य लक्ष्य, इसे राजनीतिक संघर्ष हेतु मंच के रूप में इस्तेमाल करना है। उनका ऐसा उद्देश्य नहीं है कि वे उपनिवेशी शासन के क्रमिक हस्तांतरण हेतु विधान परिषदों को हथियार के रूप में प्रयुक्त करना चाहते हैं ।
परिवर्तन विरोधियों का तर्क
• परिवर्तन विरोधियों का तर्क था कि संसदीय कार्यों में सहभागिता से रचनात्मक कार्य उपेक्षित होंगे, संघर्षरत व्यक्तियों का मनोबल गिरेगा तथा राजनीतिक भ्रष्टाचार में वृद्धि होगी।
• विधायकों के रूप में विधान परिषदों में प्रवेश करने वाले लोग कालांतर में प्रतिरोध की राजनीति छोड़ देंगे तथा धीरे-धीरे उपनिवेशी संविधान के समर्थक बन जायेंगे ।
• विधान परिषदों से बाहर रहकर रचनात्मक कार्यों के माध्यम से जनता को सविनय अवज्ञा आंदोलन के दूसरे दौर के लिये ज्यादा अच्छे से तैयार किया जा सकता है।
किन्तु विचारों में तीव्र मतभेद होने के बावजूद भी दोनों पक्ष 1907 के विभाजन की तरह किसी अशुभ घटना से बचना चाहते थे तथा उन्होंने गांधीजी से संपर्क भी बनाये रखा, जो कि उस समय जेल में थे । उन्होंने यह भी महसूस किया कि सरकार को सुधारों के लिये विवश करने हेतु आपसी एकता आवश्यक है तथा दोनों ही पक्षों का मानना था, कि गांधीजी के नेतृत्व में ही आंदोलन को सफल बनाया जा सकता है। इन्हीं कारणों से सितम्बर 1923 में दोनों पक्षों के मध्य एक समझौता हो गया । इसके तहत स्वराजियों को कांग्रेस के एक समूह के रूप में चुनाव लड़ने की अनुमति दे दी गयी । स्वराजियों ने भी केवल एक शर्त को छोड़कर कि वे विधान परिषदों में भाग नहीं लेंगे, कांग्रेस के सभी कार्यक्रमों को स्वीकार कर लिया। नवम्बर 1923 में नवगठित केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा तथा विधान परिषदों के लिये चुनाव आयोजित किये गये ।
गांधीजी का रुख (कांग्रेस-खिलाफत स्वराज्य पार्टी)
प्रारम्भ में गांधीजी विधान परिषदों का सदस्य बन्ने तथा उसकी कार्यवाही में बाधा पहुंचाने की नीति के विरोधी थे । किन्तु फरवरी 1924 में, स्वास्थ्य की खराबी के आधार पर जेल से रिहाई के पश्चात्, धीरे-धीरे उन्होंने स्वराजियों के साथ एकता स्थापित करनी शुरू कर दी।
स्वराजियों की उपलब्धियां
गठबंधन के सहयोगियों के साथ मिलकर स्वराजियों ने कई बार सरकार के विरुद्ध मतदान किया। यहां तक कि उन्होंने बजट संबंधी मांगों पर भी सरकार के विरुद्ध मतदान किया तथा स्थगन प्रस्ताव पारित किया।
- स्वशासन, नागरिक स्वतंत्रता तथा औद्योगीकरण के समर्थन में उन्होंने सशक्त भाषण दिये ।
- 1925 में विट्ठलभाई पटेल सेंट्रल, लेजिस्लेटिव एसेंबली के अध्यक्ष चुने गये।
- 1928 में सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक (Public Safety Bill) पर सरकार की पराजय, स्वराजियों की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। इस विधेयक में यह प्रावधान था कि सरकार अवांछित तथा विध्वंसकारी चरित्र वाले विदेशियों को देश से निर्वासित कर सकती है। (इसका प्रमुख कारण तत्कालीन समय में समाजवाद एवं साम्यवाद का तेजी से प्रचार था। भारत में ब्रिटिश सरकार इस दिशा में पहले से ही सतर्क थी। सरकार का विश्वास था कि कामिंटर्न द्वारा भेजे गये विदेशी, भारत में ब्रिटिश सरकार को अस्थिर करने का प्रयास कर सकते हैं)।
- स्वराजियों की गतिविधियों ने ऐसे समय में राजनीतिक निर्वात को भर दिया, जबकि राष्ट्रीय आंदोलन धीरे-धीरे अपनी सामर्थ्य खोता जा रहा था तथा उसके सम्मुख राजनीतिक शून्यता उत्पन्न हो गयी थी।
- उन्होंने मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों का खोखलापन उजागर कर दिया। उन्होंने विधानमंडलों में सरकार की भेदभावपूर्ण नीतियों के विरुद्ध जोरदार प्रदर्शन किया तथा उपयुक्त मंच के रुप में इसका उपयोग किया।