उग्र राष्ट्रवाद का युग 1905-1909

The Era of Radical Nationalism UPSC in Hindi

उग्र-राष्ट्रवाद का उदय उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों विशेषतयाः 1890 के पश्चात भारत में उग्र-राष्ट्रवाद का उदय प्रारंभ हुआ तथा 1905 तक आते-आते इसने अपना पूर्ण स्वरूप धारण कर लिया।

गोपाल कृष्ण गोखले उग्रवादी नहीं थे।*

संवैधानिक आंदोलनों से भारतीयों का विश्वास उठ गया अतः संघर्ष द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करने की जिस भावना का जन्म हुआ उसे ही उग्र राष्ट्रवाद की भावना कहते हैं कांग्रेस में एक दल इस भावना का कट्टर समर्थक था। इनका विश्वास था की स्वशासन ही भारत के विकास का मार्ग आगे ले जाएगा। 1896 से 1900 के मध्य पड़ने वाले भयंकर अकाल से इनका यह विश्वास दृढ़ हुआ।

निम्न कुछ घटनाएं उत्प्रेरक बनी-

पुणे में 1897 में नाटू बंधुओ को बिना मुकदमा चलाए ही देश से निर्वासित कर दिया और तिलक एवं अन्य नेताओं को गिरफ्तार कर लंबे कारावास का दंड दिया।

1898 –  IPC 124a के साथ में नई धारा 56a जोड़ी गई।

1904 official secrets act के द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता का दमन।

1904-University act

अंतर्राष्ट्रीय कारण-

इटली का इथोपिया द्वारा पराजित होना तथा जापान का रूस द्वारा पराजित होना।

लॉर्ड कर्जन की प्रतिक्रियावादी नीतियां-इसने भारत को एक राष्ट्र मानने से इनकार किया तथा कटु वचनों से भारतीयों को खिन्न किया।

कर्जन का कॉल 1899 – 1905 तक का था।**जहां भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का उच्चतम बिंदु था

होम रूल सोसाइटी की स्थापना 1905 में श्याम जी कृष्ण वर्मा द्वारा की गई।****** यह इंडिया हाउस के संस्थापक भी थे।

बाल गंगाधर तिलक

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  • स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है मैं इसे लेकर रहूंगा।
  • विंस्टन शिरोल इन्हें भारतीय अशांति का जनक कहा।* Ugra rastrawad ke janak
  • प्रार्थना पत्र को राजनैतिक भिक्षावृत्ति की संज्ञा दी।*
  • लोकमान्य उपाधि कब मिली-क्रांतिकारी आंदोलन के दौरान*
  • इन्होंने गणपति महोत्सव शिवाजी महोत्सव आदि को बढ़ावा दिया

MAINS ANSWER WRITING Radical Nationalism in History

उग्र-राष्ट्रवाद के उदय के कारण कांग्रेस की अनुनय-विनय की नीति से ब्रिटिश सरकार पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा तथा वे शासन में मनमानी करते रहे। इसके प्रतिक्रियास्वरूप इस भावना का जन्म हुआ कि स्वराज्य मांगने से नहीं अपितु संघर्ष से प्राप्त होगा। संवैधानिक आंदोलन से भारतीयों का विश्वास उठ गया। अतः संघर्ष द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करने की जिस भावना का जन्म हुआ उसे ही उग्र-राष्ट्रवाद की भावना कहते हैं। भारतीय राष्ट्रीय काग्रेस का एक दल इसी भावना का कट्टर समर्थक था। यह दल उग्रवादी कहलाया। जिन तत्वों के कारण उग्र-राष्ट्रवाद का जन्म हुआ, उसमें प्रमुख निम्नानुसार हैं

अंग्रेजी राज्य के सही स्वरूप की पहचानः

अंग्रेजों द्वारा कांग्रेस के प्रार्थना-पत्रों एवं मांगों पर ध्यान न दिये जाने के कारण राजनीतिक रूप से जागृत कांग्रेस का एक वर्ग असंतुष्ट हो गया तथा वह राजनीतिक आंदोलन का कोई दूसरा रास्ता अपनाने पर विचार करने लगा। इसका विश्वास था कि स्वशासन ही भारत के विकास एवं आत्म-निर्भरता का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। ब्रिटिश सरकार की आर्थिक शोषण की नीति ने देश को विपन्नता के कगार पर पहुंचा दिया था। 1896 से 1900 के मध्य पड़ने वाले भयंकर दुर्भिक्षों से 90 लाख से भी अधिक लोग मारे गये, किंतु अंग्रेज शासकों की उपेक्षा विद्यमान रही। दक्षिण-भारत में आये भयंकर प्लेग से हजारों लोग काल के ग्रास बन गये। इसके अतिरिक्त दक्षिण भारत ही में हुए साम्प्रदायिक झगड़ों ने जन-धन को अपार क्षति पहुंचायी। इन परिस्थतियों में सरकार की निरंतर उपेक्षा से देशवासियों का प्रशासन से मोह भंग हो गया। राष्ट्रवादियों ने महसूस किया कि ब्रिटिश सरकार भारतीयों को अधिक अधिकार देने की अपेक्षा वर्तमान अधिकारों को भी वापस लेने का कुत्सित प्रयास कर रही है। फलतः इन राष्ट्रवादियों ने तत्कालीन विभिन्न नियमों एवं अधिकारों की आलोचना की।

इस अवधि की निम्न घटनाओं ने भी इस दिशा में उत्प्रेरक का कार्य किया।

1892- के भारतीय परिषद अधिनियम की राष्ट्रवादियों ने यह कहकर आलोचना की कि यह अपने उद्देश्यों की पूर्ति में असफल रहा है। 1897- में पुणे के नाटु बंधुओं को बिना मुकदमा चलाये देश से निर्वासित कर दिया गया एवं तिलक तथा अन्य नेताओं को राजद्रोह फैलाने के आरोप में गिरफ्तार कर लम्बे कारावास का दण्ड दिया गया।

1898- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124-ए का दमनकारी कानून नये प्रावधानों के साथ पुनः स्थापित और विस्तृत किया गया तथा एक नई धारा 156-ए जोड़ दी गयी।

1899- कलकत्ता कार्पोरेशन एक्ट द्वारा कलकत्ता निगम के सदस्यों की संख्या में कमी कर दी गयी। 1

1904- कार्यालय गोपनीयता कानून (Official Secrtes Act) द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता का दमन।

1904- भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम द्वारा विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियंत्रण और कड़ा कर दिया गया तथा सरकार को सेनेट द्वारा पारित प्रस्तावों पर निषेधाधिकार (Veto) दिया गया।

ब्रिटिश शासन के सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव भी विनाशकारी रहे। इसने शिक्षा के प्रसार में उपेक्षा की नीति अपनायी विशेषकर लोकशिक्षा, स्त्रीशिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में।

आत्मविश्वास तथा आत्म-सम्मान में वृद्धिः राष्ट्रवादियों के प्रयास से भारतीयों के आत्म-विश्वास एवं आत्म-सम्मान में वृद्धि होती गई। तिलक, अरविन्द घोष तथा विपिन चंद्र पाल ने अन्य राष्ट्रवादी नेताओं से अपील की कि वे भारतीयों की विशेषताओं एवं शक्ति को पहचानें। धीरे-धीरे यह धारणा बलवली होने लगी कि जन साधारण के सहयोग के बिना स्वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्यों तक नहीं पहुंचा जा सकता।

शिक्षा का विकासः

शिक्षा के व्यापक प्रसार से जहां एक ओर भारतीय तेजी से शिक्षित होने लगे तथा उनमें जागृति आयी, वहीं दूसरी ओर उनमें बेरोजगारी एवं अर्द्ध-बेरोजगारी भी बढ़ी क्योंकि शिक्षित होने वाले व्यक्तियों की तुलना में सरकार रोजगार के अवसरों का सृजन नहीं कर सकी। इनमें से अधिकांश ने अपनी बेकारी और दयनीय आर्थिक दशा के लिये उपनिवेशी-शासन को उत्तरदायी ठहराया तथा धीरे-धीरे वे विदेशी शासन को समूल नष्ट करने के लिये उग्र राष्ट्रवाद की ओर झुकने लगे। चूंकि भारतीयों का यह नव-शिक्षित वर्ग पश्चिमी शिक्षा के कारण वहां के राष्ट्रवाद, जनतंत्र एवं आमूल परिवर्तन के विचारों से अवगत हो चुका था फलतः उसने साधारण भारतीयों में भी आमूल परिवर्तन लाने वाली राष्ट्रवादी राजनीति का प्रसार प्रारंभ कर दिया।

अंतरराष्ट्रीय घटनाओं का प्रभावः इस काल की कई अंतरराष्ट्रीय घटनाओं ने भी उग्र राष्ट्रवाद के उदय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1868 के पश्चात जापान का विशाल औद्योगिक शक्ति के रूप में उभरना एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना थी। इससे भारतीय इस सच्चाई से अवगत हुए कि एशिया के देश बिना किसी बाह्य सहयोग के भी आर्थिक विकास कर सकते हैं। इस घटना ने उदारवादियों की इस अवधारणा को पूर्णतः गलत साबित कर दिया कि भारत के आर्थिक विकास के लिये ब्रिटेन का संरक्षण आवश्यक है। 1896 में इथियोपिया द्वारा इटली की सेनाओं की अपमानजनक पराजय, ब्रिटिश सेनाओं को गंभीर क्षति पहुंचाने वाले बोअर युद्ध (1899-1902) एवं 1905 में जापान द्वारा रूस की पराजय जैसी घटनाओं ने यूरोपीय अजेयता के मिथक को तोड़ दिया। इसी प्रकार आयरलैंड, रूस, मिश्र, पर्शिया एवं चीन के क्रांतिकारी आंदोलनों ने भी राष्ट्रवादियों को विश्वास दिलाया कि वे राष्ट्रव्यापी उग्र आंदोलन द्वारा एकजुट होकर विदेशी दासता से मुक्ति पा सकते हैं।

बढते हुए पश्चिमीकरण के विरुद्ध प्रतिक्रियाः नवीन राष्ट्रवादी नेताओं ने बढ़ते हो पश्चिमीकरण पर गहरी चिंता व्यक्त की क्योंकि भारतीय राजनीतिक चिंतन एवं समाज में पश्चिमी प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा था। भारत का सांस्कृतिक पहलू भी इससे अछूता न रहा। इससे भारतीय संस्कृति के पाश्चात्य संस्कृति में विलीन होने का खतरा पैदा हो गया। ऐसे समय में स्वामी विवेकानंद, बंकिमचंद्र चटर्जी एवं स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे विद्वानों ने भारतीय तथा वैदिक संस्कृति के प्रति लोगों में नया विश्वास पैदा किया तथा भारत की प्राचीन समृद्ध विरासत का गुणगान कर पश्चिमी संस्कृति की पोल खोल दी। इन्होंने भारत की प्राचीन सांस्कृतिक समृद्धि का बखान कर पाश्चात्य सर्वश्रेष्ठता के भ्रम को तोड़ दिया। इनके प्रयासों से भारतीयों की यह हीन भावना दूर हो गयी कि वे पश्चिम से पिछड़े हुए हैं।

दयानंद सरस्वती ने घोषित किया ‘भारत भारतीयों के लिये है।

उदारवादियों की उपलब्धियों से असंतोषः तरुण राष्ट्रवादी कांग्रेस के पहले 15-20 वर्षों की उपलब्धियों से संतुष्ट न थे। वे कांग्रेस की क्षमा, याचना एवं शांतिपूर्ण प्रतिवाद की नीति के तीव्र आलोचक थे। उनका मानना था कि अंग्रेजी साम्राज्यवाद को इस तरह की नीतियों से कभी भी समाप्त नहीं किया जा सकता। उदारवादियों की इस नीति को उन्होंने ‘राजनीतिक भिक्षावृत्ति’ की संज्ञा दी। वे स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु उग्र आंदोलन चलाये जाने के पक्षधर थे।

लार्ड कर्जन की प्रतिक्रियावादी नीतियांः लार्ड कर्जन का भारत में 7 वर्ष का शासन शिष्टमंडल, भूलों तथा आयोगों के लिये प्रसिद्ध है। इसकी भारतीय जनमानस पर कड़ी प्रतिक्रिया हुई। कर्जन ने भारत को एक राष्ट्र मानने से इंकार कर दिया तथा काग्रेस को ‘मन के उद्गार निकालने वाली संस्था’ की संज्ञा दी। उसने भारत विरोधी बयान दिये। उसके शासन के विभिन्न प्रतिक्रियावादी कानूनों यथा-कार्यालय पनायता अधिनियम, भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम तथा कलकत्ता कार्पोरेशन धनियम इत्यादि से भारतीय खिन्न हो गये। 1905 में बंगाल के विभाजन तथा कटभाषा के प्रयोग से भारतीयों का असंतोष चरम सीमा पर पहुंच गया। बंगाल विभाजन के विरोध में पूरे देश में तीव्र आंदोलन हुए तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया। कर्जन के इन कार्यों से ब्रिटिश शासकों की प्रतिक्रियावादी मंशा स्पष्ट उजागर हो गयी।

जुझारू राष्ट्रवादी विचारधारा का अस्तित्वः बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में जुझारू या उग्र विचारधारा वाले राष्ट्रवादियों का एक ऐसा वर्ग तैयार हुआ, जिसने राजनीतिक कार्यों एवं आंदोलनों के लिये उग्र तरीके अपनाने पर जोर दिया। इन जुझारू राष्ट्रवादियों में बंगाल के राज नारायण बोस, अश्विनी कुमार दत्त, अरविंद घोष तथा विपिनचंद्र पाल, महाराष्ट्र के विष्णु शास्त्री चिपलूणकर, बाल गंगाधर तिलक एवं पंजाब के लाला लाजपत राय प्रमुख थे। इस उग्र विचाराधारा के उत्थान में सबसे अधिक सहयोग तिलक ने दिया। उन्होंने अंग्रेजी भाषा में ‘मराठा’ एवं मराठी में ‘केसरी के माध्यम से भारतीयों को जुझारू राष्ट्रवाद की शिक्षा दी और स्पष्ट रूप से कहा कि आजादी बलिदान मांगती है। इस विचारधारा के समर्थकों के प्रमुख सिद्धांत इस प्रकार थे

• विदेशी शासन से घृणा करो, इससे किसी प्रकार की उम्मीद करना व्यर्थ है, अपने उद्धार के लिये भारतीयों को स्वयं प्रयत्न करना चाहिए।

•.स्वतंत्रता आंदोलन का मुख्य लक्ष्य ‘स्वराज्य’ है।

• राजनीतिक क्रियाकलापों में भारतीयों की प्रत्यक्ष भागीदारी

• निडरता, आत्म-त्याग एवं आत्म विश्वास की भावना प्रत्येक भारतीय में अवश्य होनी चाहिए।

• स्वतंत्रता पाने एवं हीन दशा को दूर करने हेतु भारतीयों को संघर्ष करना चाहिए।

एक प्रशिक्षित नेतृत्व का उद्भवः राजनीतिक कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षित समूह के अभाव में राजनीतिक आंदोलन को उच्चता या पराकाष्ठा पर ले जाना असंभव है। सौभाग्यवश भारत में लंबे एवं व्यवस्थित राजनीतिक आंदोलन के फलस्वरूप देश म प्रशिक्षित नेतृत्व का अभ्युदय हो चुका था। इस प्रशिक्षित नेतृत्व ने स्वतंत्रता संघर्ष का नयी दिशा दी एवं भारतीयों की ऊर्जा एवं शक्ति को स्वतंत्रता प्राप्ति के अभियान स जोड़ दिया। बंगाल विभाजन के विरोध एवं स्वदेशी आंदोलन जैसे अभियानों के फलस्वरूप भारतीयों को अपनी सामर्थ्य का आभास हो चुका था। योग्य नेतृत्व न स्वराज्य प्राप्ति की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया।

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