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Important Decision of Supreme court regarding Creamy Layer
अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण (Sub-Classification of Scheduled Castes)
हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट की 7 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने पंजाब राज्य एवं अन्य बनाम दविंदर सिंह और अन्य मामला (2024) में फैसला सुनाया कि अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15(4), और 16(4) के तहत वैध है। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, राज्य अनुसूचित जातियों के भीतर अधिक वंचित समूहों को अतिरिक्त कोटा (आरक्षण) देने के लिए अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण कर सकता है।
सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने जिन प्रमुख मुद्दों पर विचार किया:
- क्या आरक्षित जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण की अनुमति दी जानी चाहिए?
- ई. वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2005) के निर्णय की वैधता पर पुनर्विचार।
- ई. वी. चिन्नैया मामले (2005) में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया था कि अनुच्छेद 341(1) के तहत अनुसूचित जातियों को एक समान समूहीकृत किया गया है, और उन्हें आगे उप-वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।
पृष्ठभूमि:
- 2014 में दविंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ई. वी. चिन्नैया (2004) के निर्णय पर पुनर्विचार की अपील को 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ के पास भेजा।
- 2020 में, 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने यह सिफारिश की कि ई. वी. चिन्नैया मामले में दिए गए निर्णय पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस मामले के तहत कोर्ट ने अनुसूचित जातियों के उप-वर्गीकरण पर रोक लगा दी थी।
इस प्रकार, सात न्यायाधीशों की पीठ ने इन दो महत्वपूर्ण प्रश्नों का पुनर्मूल्यांकन किया और राज्य को अनुसूचित जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण की अनुमति दी, ताकि अधिक वंचित समूहों को आरक्षण का उचित लाभ मिल सके।
Important Decision of Supreme court regarding Creamy Layer
1. केरल राज्य बनाम एन. एम. थॉमस (1975)
का मामला भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक महत्वपूर्ण निर्णय है, जिसमें आरक्षण और सामाजिक न्याय से संबंधित मुद्दों पर विचार किया गया था। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 16(4) के तहत सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने के प्रावधान की वैधता की पुष्टि की थी।
हालांकि, यह सुप्रीम कोर्ट का पहला मामला नहीं था जिसमें ‘क्रीमी लेयर'(Creamy Layer) शब्द का प्रयोग किया गया हो। वास्तव में, ‘क्रीमी लेयर’ की अवधारणा बाद में 1992 के इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (मंडल आयोग मामला) में उभरी थी। लेकिन एन. एम. थॉमस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह अवश्य कहा था कि आरक्षण का लाभ केवल पिछड़ी जातियों के संपन्न या समृद्ध व्यक्तियों द्वारा नहीं उठाया जाना चाहिए।
2. इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (1992)
- इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मंडल आयोग की सिफारिशों पर फैसला सुनाते हुए कहा कि अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के तहत आने वाले ‘क्रीमी लेयर’ Creamy Layer को आरक्षण के लाभों से बाहर रखा जाना चाहिए।
- कोर्ट ने यह भी कहा कि आरक्षण की सीमा 50% से अधिक नहीं होनी चाहिए, हालांकि कुछ असाधारण परिस्थितियों में यह सीमा पार हो सकती है।
- यह निर्णय आरक्षण व्यवस्था में ‘क्रीमी लेयर’ की अवधारणा को औपचारिक रूप से स्थापित करने वाला महत्वपूर्ण फैसला था, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि केवल आर्थिक रूप से पिछड़े व्यक्तियों को ही आरक्षण का लाभ मिले।
3. ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2004)
- इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि राज्य सरकारें अनुसूचित जातियों (SC) का उप-वर्गीकरण नहीं कर सकती हैं।
- संविधान का अनुच्छेद 341 राष्ट्रपति को अनुसूचित जातियों की सूची निर्धारित करने की शक्ति देता है, और केवल संसद को इस सूची में बदलाव करने का अधिकार है।
- कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार द्वारा अनुसूचित जातियों को उप-समूहों में विभाजित करने का प्रयास संविधान के अनुच्छेद 341 और समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है।
4. जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता (2018)
- इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि ‘क्रीमी लेयर’ Creamy Layer की अवधारणा अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) पर भी लागू की जा सकती है।
- अदालत ने यह स्पष्ट किया कि ‘क्रीमी लेयर’ की अवधारणा को लागू करने से अनुच्छेद 341 और 342 के तहत अनुसूचित जातियों और जनजातियों की सूची में कोई छेड़छाड़ नहीं होती।
- इस फैसले ने SC/ST वर्गों के भीतर भी क्रीमी लेयर को आरक्षण से बाहर रखने का मार्ग प्रशस्त किया।
इन फैसलों ने आरक्षण नीति में गहराई से जुड़े मुद्दों को स्पष्ट किया है, जैसे ‘क्रीमी लेयर’ की अवधारणा, SC के उप-वर्गीकरण की वैधता, और आरक्षण के दायरे का विस्तार।