Mughal dynasty – Akbar- UPSC Notes

अकबर (akbar) मुग़ल वंश का तीसरा शासक था। वह 1556 ईस्वी में अपने पिता हुमायूं की मृत्यु के बाद सिंहासन पर आसीन हुआ। उस समय उसके अधिकार में कोई बड़ा क्षेत्र नहीं था। उसी वर्ष, पानीपत की दूसरी लड़ाई में उसने हेमू पर विजय प्राप्त की, जो अफगान सूर वंश का समर्थक था। इस जीत के बाद, अकबर पंजाब, दिल्ली, आगरा और आसपास के क्षेत्रों का स्वामी बन गया। अगले पांच वर्षों में उसने इन क्षेत्रों में अपना राज्य मजबूत किया और अपना साम्राज्य पूर्व में गंगा-यमुना के संगम इलाहाबाद तक, मध्य भारत में ग्वालियर तक, और राजस्थान में अजमेर तक विस्तार किया। अगले 20 वर्षों में, अकबर ने कश्मीर, सिंध और उड़ीसा को छोड़कर पूरे उत्तर भारत पर विजय प्राप्त कर ली। 1592 ईस्वी तक उसने इन तीनों क्षेत्रों को भी अपने राज्य में शामिल कर लिया। इससे पहले, 1581 ईस्वी में, उसने अपने छोटे भाई हकीम की बगावत को कुचल दिया, जिसने खुद को काबुल का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया था। दस साल बाद, अकबर ने कंधार को जीत लिया और बलूचिस्तान पर भी अधिकार कर लिया।

दक्षिण भारत पर विजय और अकबर की मृत्यु

उत्तर भारत पर विजय प्राप्त करने के बाद, अकबर ने दक्षिण भारत को भी अपने साम्राज्य में शामिल करने का प्रयास किया। 1600 ईस्वी में उसने अहमदनगर पर आक्रमण किया और 1601 ईस्वी में खानदेश के असीरगढ़ किले को जीत लिया। यह उसकी अंतिम विजय थी। चार साल बाद, अकबर की मृत्यु हो गई। उस समय उसका साम्राज्य पश्चिम में काबुल से पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय की तराई से दक्षिण में नर्मदा नदी के किनारे तक फैला हुआ था।

अकबर का साम्राज्य

अकबर का साम्राज्य 15 सूबों में विभाजित था:

  1. काबुल
  2. लाहौर (जिसमें पंजाब और कश्मीर शामिल थे)
  3. मुल्तान-सिंध
  4. दिल्ली
  5. आगरा
  6. अवध
  7. इलाहाबाद
  8. अजमेर
  9. अहमदाबाद
  10. मालवा
  11. बिहार
  12. बंगाल-उड़ीसा
  13. खानदेश
  14. बरार
  15. अहमदनगर

कुशल प्रशासक

अकबर केवल एक महान विजेता ही नहीं, बल्कि एक कुशल प्रशासक और साम्राज्य का संस्थापक भी था। उसने एक ऐसी प्रशासनिक व्यवस्था की नींव रखी जो अपने पूर्ववर्तियों से कहीं अधिक उन्नत थी। उसका शासन व्यक्तिगत स्वेच्छाचारी और नौकरशाही पर आधारित था, जिसमें बादशाह के व्यक्तिगत अधिकार और राजकोष को बढ़ाने पर जोर दिया गया था। मनसबदार, जो बादशाह के आदेश का पालन करते थे, तीन श्रेणियों में विभाजित थे और उनके पद 10 से लेकर पांच हजार तक होते थे। उन्हें वेतन नकद दिया जाता था, और उनकी गतिविधियों पर नियंत्रण रखने के लिए कई नियम बनाए गए थे, खासकर सवारों की फर्जी सूची रखने के खिलाफ।

हर सूबे में एक सूबेदार नियुक्त था, जिसे नवाब नाजिम भी कहा जाता था। वह अपने सूबे के छोटे दरबार का संचालन करता था, जैसे तुर्क और अफगान सुल्तानों के समय में होता था। लेकिन अकबर ने सूबेदारों पर नियंत्रण रखने के लिए “दीवान” नामक एक नया अधिकारी नियुक्त किया, जो सूबे के वित्तीय मामलों की देखभाल करता था।

राजस्व बढ़ाने के लिए, अकबर ने राजा टोडरमल की मदद से भूमि की नाप-जोख और पैमाइश करके मालगुजारी की नई व्यवस्था लागू की। रैयत और काश्तकारों से सीधा लगान वसूला जाता था, जिसमें उपज का एक तिहाई हिस्सा नकद या अनाज के रूप में लिया जाता था और यह वसूली सरकारी अफसरों द्वारा की जाती थी।

हिंदुओं के प्रति व्यवहार

अकबर का स्थान भारत के मुसलमान शासकों में सबसे ऊंचा है। उसके पहले के शासकों ने हिंदू प्रजा का ध्यान नहीं रखा, जिससे हिंदू-मुस्लिम संघर्ष और शत्रुता बनी रही। अकबर ने महसूस किया कि हिंदुस्तान का बादशाह केवल मुसलमानों का शासक नहीं हो सकता। यदि उसे अपने राज्य को मजबूत बनाना है, तो उसे हिंदुओं की भी राजभक्ति प्राप्त करनी होगी। इसलिए उसने उदार नीति अपनाई, जिसमें तीर्थ-यात्राओं पर लगने वाला जजिया कर समाप्त कर दिया, जो केवल हिंदुओं पर लगाया जाता था। उसने हिंदुओं को भी उनकी योग्यता के अनुसार महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया। राजपूतों का समर्थन पाकर, अकबर ने अपना साम्राज्य काबुल से बंगाल तक फैलाया।

राजपूत सरदार बीरबल ने स्वेच्छा से अकबर की सेवा में प्रवेश किया और उसका प्रिय बन गया। अकबर ने उसे “राजा” की उपाधि दी। बीरबल न केवल एक बहादुर सेनापति था, बल्कि एक प्रतिभाशाली कवि भी था, जिसे अकबर ने “कविराय” की उपाधि से सम्मानित किया था। 1586 ईस्वी में बीरबल, पश्चिमोत्तर सीमा पर यूसुफजई कबीले के खिलाफ मुग़ल सेना का नेतृत्व करते हुए मारा गया।

दीन-ए-इलाही

अकबर ने हिंदू और इस्लाम धर्म की अच्छी बातों को मिलाकर एक नया धर्म स्थापित करने का प्रयास किया। इस उद्देश्य से उसने 1582 ईस्वी में “दीन-ए-इलाही” की शुरुआत की, जिसमें कुरान, हिंदू धर्मशास्त्रों और बाइबल के सिद्धांतों का समन्वय किया गया था। अकबर सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता के सिद्धांत का पालन करता था और उसने अपने धर्म को दूसरों पर थोपने का प्रयास नहीं किया। दीन-ए-इलाही एकेश्वरवाद पर आधारित था, लेकिन इसमें थोड़ी बहुत बहुदेववाद की भी झलक थी। इसका उद्देश्य धार्मिक सहिष्णुता की स्थापना करना था, जो भारत में, जो धार्मिक भेदभाव से ग्रस्त था, एक महत्वपूर्ण आवश्यकता थी। इस धर्म को बहुत कम लोगों ने स्वीकार किया, और अकबर की मृत्यु के बाद यह धर्म लुप्त हो गया।

Ankur Singh
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