समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code)

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि देश में समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) लागू करने में अभी तक कारगर प्रयास नहीं किये गए हैं। गौरतलब है कि न्यायालय ने गोवा के एक संपत्ति विवाद मामले की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की है।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान के संस्थापकों ने उम्मीद जताई थी कि एक दिन राज्य समान नागरिक संहिता की अपेक्षाओं को पूरा करेंगे

वर्ष 1956 में हिंदू कानूनों को संहिताबद्ध कर दिया गया था, लेकिन देश के सभी नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता लागू करने का गंभीर प्रयास नहीं किया गया है। । इसके बाद वर्ष 1985 में शाह बानो मामले में भी सर्वोच्च न्यायालयद्वारा समान आचार संहिता के लिये प्रोत्साहन दिया गया था।

समान नागरिक संहिता क्या है?

इसका अर्थ है अनिवार्य रूप से व्यक्तिगत कानूनों (Personal Laws), यथा- विवाह एवं तलाक, दत्तक एवं प्रतिपालन तथा उत्तराधिकार व विरासत आदि को एकीकृत कर भारत के सभी नागरिकों के लिये धर्मनिरपेक्ष कानूनों का एक सेट तैयार करना। वर्तमान में भारत के विभिन्न धार्मिक समुदाय अपने-अपने व्यक्तिगत कानूनों के माध्यम से विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि मुद्दों का समाधान करते हैं लेकिन समान नागरिक संहिता इन सभी व्यक्तिगत कानूनों को प्रतिस्थापित कर एक समान कानून की वकालत करती है।

– उल्लेखनीय है कि भारत के संविधान में राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांत के अंतर्गत अनुच्छेद 44 में नागरिकों के लिये एक समान सिविल संहिता की स्थापना की बात कही गई है।

भारत में स्थिति भारत में अधिकतर व्यक्तिगत कानून धर्म के आधार पर तय किये गए हैं। हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध धर्मों के व्यक्तिगत कानून हिंदू विधि से संचालित किये जाते हैं, वहीं मुस्लिम तथा ईसाई धर्मों के अपने अलग व्यक्तिगत कानून हैं। मुस्लिमों का कानून शरीअत पर आधारित है, जबकि अन्य धार्मिक समुदायों के व्यक्तिगत कानून भारतीय संसद द्वारा बनाए गए कानून पर आधारित हैं। अब तक गोवा एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ पर समान नागरिक संहिता लागू है, वहाँ पुर्तगाल सिविल कोड, 1867 लागू है जिसके तहत उत्तराधिकार और विरासत का नियम संचालित होता है।

समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code)

समान नागरिक संहिता के पक्ष में तर्क

  • भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 42वें संशोधन के माध्यम सेधर्मनिरपेक्षता शब्द को प्रविष्ट किया गया। इससे यह स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान का उद्देश्य भारत के सभी नागरिकों को धार्मिक आधार पर किसी भी भेदभाव को समाप्त करना है लेकिन वर्तमान समय तक समान नागरिक संहिता के लागू न हो पाने के कारण भारत में एक बड़ा वर्ग अभी भी धार्मिक कानूनों की वजह से अपने अधिकारों से वंचित है।
  • मूल अधिकारों में विधि के शासन की अवधारणा विद्यमान है लेकिन इन्हीं अवधारणाओं के बीच लैंगिक असमानता जैसी कुरीतियाँ भी व्याप्त हैं। विधि के शासन के अनुसार, सभी नागरिकों हेतु एक समान विधि होनी चाहिये। लेकिन समान नागरिक संहिता का लागू न होनाएक प्रकार से विधि के शासन और संविधान की प्रस्तावना का उल्लंघन है। – सामासिक संस्कृति व विविधता के नाम पर विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों की मौजूदगी संविधान के साथ-साथ संस्कृति और समाज के साथ भी अन्याय है क्योंकि प्रत्येक संस्कृति तथा सभ्यता के मूलभूत नियमों के तहत महिलाओं और पुरुषों को समान अधिकार प्राप्त होता है।
  • धार्मिक रूढ़ियों की वजह से समाज के किसी वर्ग के अधिकारों का हनन रोका जाना चाहिये। साथ ही विधि के समक्ष समता की अवधारणा के तहत सभी के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिये। वैश्वीकरण के वातावरण में महिलाओं की भूमिका समाज में महत्त्वपूर्ण हो गई है, इसलिये उनके अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता में किसी प्रकार की कमी उनके व्यक्तित्त्व तथा समाज के लियेअहितकर है।

समान नागरिक संहिता के विपक्ष में तर्क

समान नागरिक संहिता का मुद्दा किसी सामाजिक या व्यक्तिगत अधिकारों के मुद्दे से हटकर एक राजनीतिक मुद्दा बन गया है, इसलिये जहाँ एक ओर कुछ राजनीतिक दल इस मामले के माध्यम से राजनीतिक तुष्टिकरण कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कई राजनीतिक दल इस मुद्दे के माध्यम से धार्मिक ध्रुवीकरण का प्रयास कर रहे हैं। हिंदू या किसी और धर्म के मामलों में बदलाव उस धर्म के बहुसंख्यक समर्थन के बगैर नहीं किया गया है, इसलिये राजनीतिक तथा न्यायिक प्रक्रियाओं के साथ ही धार्मिक समूहों के स्तर पर मानसिक बदलाव का प्रयास किया जाना आवश्यक है।

-सामासिक संस्कृति की विशेषता को भी वरीयता दी जानी चाहियेक्योंकि समाज में किसी धर्म के असंतुष्ट होने से अशांति की स्थिति बन सकती है। । अनच्छेद 37 के तहत निदेशक तत्त्वों का न्यायालय में वादयोग्य न होना भी विपक्षियों के लिये प्रमुख तर्क बनकर उभरा है। जबकि देश के शासन में इसके मूलभूत होने को नज़रअंदाज कर दिया गया है। – समान नागरिक संहिता का मुद्दा मूलाधिकारों के तहत अनुच्छेद 14 (विधि के समक्ष समता) और 25 (अंतःकरण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता) के बीच द्वंद्व से प्रभावित है।

विधि आयोग की सिफारिशें

वर्ष 2018 में विधि आयोग ने अपने परामर्श पत्र में कहा था कि समाननागरिक संहिता वर्तमान दौर में न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय। – आयोग ने अपने पत्र में यह भी कहा था कि धर्मनिरपेक्षता देश में व्याप्त बहुलता का खंडन नहीं कर सकती है।

विवाह के लिये सम्मति आयु विधि आयोग ने विवाह हेतु लड़के (21 वर्ष) एवं लड़की (18 वर्ष) के लिये न्यूनतम उम्र सीमा को परिवर्तित करने की सिफारिश की है, क्योंकि यह इस रूढ़िवादी व्यवस्था को प्रश्रय देता है कि ‘पति की अपेक्षा पत्नी छोटी होनी चाहिये।

समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code)

विवाह एवं तलाक –

व्यभिचार कानूनः इस संबंध में आयोग ने कोई सलाह नहीं दी है,क्योंकि जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ वाद के मामले में संवैधानिक पीठ का निर्णय प्रतीक्षित है। हालाँकि, भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के प्रावधान की उपयोगिता या कमी पर विमर्श की इच्छा जताई गई है।

तलाक का आधार

इस संबंध में आयोग ने हिंदू विवाह अधिनियम पर । 1978 में प्रस्तुत अपनी 71वीं रिपोर्ट ही दोहराई है। आयोग ने एक परिस्थिति को संदर्भित करते हुए कहा कि भावुकता और अन्य प्रकार के लगाव, जो विवाह के सार हैं, का लोप हो जाना तलाक का प्रमुख आधार है। साथ ही जहाँ विवाह वास्तविक और तात्विक रूप से विघटित हो गया हो, तलाक को एक वर्जना की बजाय समाधान के रूप में देखा जाना चाहिये। इस तरह आयोग ने विवाह की अवधारणा को स्वस्थ और भेदभाव रहित बनाए रखने हेतु तलाक की प्रक्रिया को सरल बनाने पर जोर दिया है। । गोद लेना और प्रतिपालन – आयोग ने किशोर न्याय के संबंध में दोष को उजागर किया है और कहा है कि बच्चों की देखभाल एवं संरक्षण अधिनियम, 2015 न्याय संबंधी प्रश्नों का समाधान करने के लिये अपर्याप्त है। इसने सभी प्रकार की लिंग पहचान वाले व्यक्तियों को अधिनियम के दायरे में लाने के लिये गोद लेने के प्रावधानों में ‘माता’ और ‘पिता’ के स्थान पर ‘अभिभावक’ शब्द इस्तेमाल करने की सलाह दी। साथ ही ‘इंटरसेक्स’ बच्चों को अपनाने के लिये ‘पुत्र’ और ‘पुत्री’ को ‘बच्चे’ (Child) से प्रतिस्थापित करने का भी सुझाव दिया।

उत्तराधिकार तथा विरासत

इस संदर्भ में आयोग ने विभिन्न समुदायों के लिये अलग-अलग सुझाव प्रस्तुत किये हैं। हिंदू समुदाय के लिये परामर्श देते हुए जन्म से संपत्ति का अधिकार और हिंदू अविभाजित परिवार की अवधारणा को समाप्त करने की सिफारिश की है। मुस्लिम समुदाय के लिये एक संपूर्ण संहिता का निर्माण, जो विरासत और उत्तराधिकार के मुद्दों को शामिल करता हो तथा शिया और सुन्नी दोनों ही समुदायों पर लागू होता हो। संबंधित मुद्दे – लैंगिक भेदभावः वर्तमान में विभिन्न समुदायों की अलग-अलग संहिता में पुरुषों का वर्चस्व स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। समान नागरिक संहिता के माध्यम से लैंगिक भेदभाव को रोका जा सकता है। राष्ट्रीय एकताः समान नागरिक संहिता को राष्ट्रीय एकता की राह में मज़बूत पहल के रूप में देखा जाता है, क्योंकि इसके लागू होने से आपराधिक कानून और अन्य नागरिक कानूनों की भाँति सभी नागरिकों के लिये व्यक्तिगत कानून भी समान हो जाएंगे। अनेकता में एकताः विविधता भारतीय संस्कृति व लोकतंत्र की मज़बूती । का आधार स्तंभ है। इन्हीं विशेषताओं के कारण भारत में सभी समुदाय अपनी आस्था और विश्वास पर आधारित व्यक्तिगत कानूनों से संचालित होते हैं। समान नागरिक संहिता भारत की इस संरचना को समाप्त कर सकती है। – यह नागरिकों के व्यक्तिगत मामलों में राज्य के हस्तक्षेप को बढ़ाने जैसा होगा, जो विभिन्न समुदायों के पारंपरिक मान्यताओं को उपेक्षित कर देगा। इस संबंध में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद 25) को सीमित करने का तर्क भी प्रस्तुत किया जाता है।

आगे की राह

समाज की प्रगति और सौहार्दता हेतु उस समाज में विद्यमान सभी पक्षों के बीच समानता का भाव होना अत्यंत आवश्यक है। इसलिये अपेक्षा की जाती है कि बदलती परिस्थितियों के मद्देनजर समाज की संरचना में परिवर्तन होना चाहिये। धर्म व्यक्ति और ईश्वर के बीच की आस्था को प्रदर्शित करता है जबकि विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि व्यक्तिगत कानून सामाजिक नियमों से जुड़े पक्ष हैं। अतः लोगों को धर्म व सामाजिक नियमों के अलग अस्तित्व के बारे में जागरूक करना होगा। समान आचार संहिता में केवल कानूनी पक्षों को शामिल करते हुए सभी धर्मों की पारंपरिक प्रथाओं को निभाने की अनुमति देनी चाहिये। इससे सांस्कृतिक विविधता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। सर्वोच्च न्यायालय तथा संविधान निर्माताओं की भावनाओं को व्यावहारिक रूप देने तथा समाज को एकसूत्र में बांधने के लिये समान आचार संहिता की दिशा में धीरे-धीरे बढ़ना चाहिये। इसके अतिरिक्त इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि “भिन्नता’ न तो सदैव भेदभाव को दर्शाती है और न ही ‘समानता’ हमेशा एकता को प्रदर्शित करती है। इस तरह धार्मिक और क्षेत्रीय विविधता को मान्यता प्रदान करते हुए विभिन्न धर्मों के भीतर मौजूद रूढ़िवादी एवं भेदभावपूर्ण प्रथाओं को पहचानने की आवश्यकता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *