तीनों पानीपत युद्धो का विवरण (WAR OF PANIPAT IN HINDI)

पानीपत में तीन लड़ाईयां हुई , इनका विवरण अलग अलग मिलने के कारण छात्र कंफ्यूज रहते है , तो इनका विवरण एक साथ दिया जा रहा है –

पानीपत की पहली लड़ाई -21 अप्रैल, 1526 ई.

तीनों पानीपत युद्धो का विवरण (WAR OF PANIPAT IN HINDI)

यह लड़ाई दिल्ली के सुलतान इब्राहीम लोदी और बाबर के बीच हुई. इब्राहीम के पास एक लाख संख्या तक की फ़ौज थी.

लिखित विवरणों से पता चलता है कि बाबर के पास सिर्फ 12000 की फौज थी जबकि लोदी के पास 1 लाख से अधिक की फौज थी।

पर तोप खाने और कुशल नेतृत्व की वजह से बाबर ने निर्णायक विजय प्राप्त की।

लोदी रणभूमि में ही मारा गया, इसी के साथ ही दिल्ली में मुगल वंश की नीव पड़ी।

युद्ध का संदर्भ: पानीपत का प्रथम युद्ध, जो अप्रैल 1526 में पानीपत के निकट लड़ा गया था, भारतीय इतिहास के मध्यकालीन युग में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। पानीपत वह स्थल था, जहाँ बारहवीं शताब्दी के बाद से उत्तर भारत पर नियंत्रण के लिए कई निर्णायक लड़ाइयाँ लड़ी गईं। इस युद्ध ने भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखी और इसे भारत में मुगलों की पहली बड़ी विजय के रूप में याद किया जाता है।

युद्ध में तकनीकी नवाचार: पानीपत का प्रथम युद्ध उन शुरुआती लड़ाइयों में से एक था, जिसमें मुगलों ने बारूद, आग्नेयास्त्रों और तोपों का इस्तेमाल किया। यह तकनीकी नवाचार युद्ध में मुगलों की विजय का एक प्रमुख कारण था।

प्रतिद्वंद्वी सेनाएँ: यह युद्ध मुगल शासक ज़हीर-उद्दीन बाबर और दिल्ली के लोदी वंश के सुल्तान इब्राहिम लोदी के बीच लड़ा गया था। बाबर की सेना में लगभग 15,000 सैनिक और 20 से 24 तोपें थीं, जबकि इब्राहिम लोदी की सेना में 30,000 से 40,000 सैनिक और कम से कम 1000 हाथी थे।

बाबर की रणनीति: बाबर ने इस युद्ध में न केवल अपनी सैन्य शक्ति का इस्तेमाल किया, बल्कि उसने अपनी रणनीतिक चतुराई से भी विजय प्राप्त की। उसकी तुलुगमा और अरबा रणनीतियाँ बेहद प्रभावी साबित हुईं।

  • तुलुगमा युद्ध नीति: इसमें पूरी सेना को विभिन्न इकाइयों में बाँट दिया जाता था—बाएँ, दाहिने और मध्य भाग में। इस विभाजन से दुश्मन को चारों ओर से घेरकर हमला करने में आसानी होती थी।
  • अरबा युद्ध नीति: केंद्रीय फ़ॉरवर्ड डिवीज़न को बैलगाड़ियों (अरबा) से सुसज्जित किया जाता था, जो कि दुश्मन के सामने पंक्तिबद्ध की जाती थीं। इन गाड़ियों के पीछे तोपें रखी जाती थीं, जिनसे छिपकर दुश्मनों पर हमला किया जा सकता था।

युद्ध का परिणाम: इस युद्ध में बाबर की मुगल सेना ने इब्राहिम लोदी की विशाल सेना को हराया। इब्राहिम लोदी की मृत्यु युद्ध के मैदान में ही हो गई और उसके सामंतों तथा सेनापतियों ने उसे छोड़ दिया। अधिकांश सामंतों ने दिल्ली के नए शासक बाबर की सत्ता को स्वीकार कर लिया, जिससे भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना की नींव पड़ी।

पानीपत की दूसरी लड़ाई – ( 5 नवम्बर, 1556)

यह लड़ाई अफगान बादशाह आदिलशाह सूर के हिन्दू सेनापति और मंत्री हेमू और अकबर के बीच हुई, . हेमू के पास अकबर से कहीं अधिक बड़ी सेना थी. हाथियों का वर्चस्व हेमू की सेना में था. प्रारम्भ में मुग़ल सेना के मुकाबले में हेमू को सफलता प्राप्त हुई परन्तु एक तीर हेमू के आँख में लग गया और यह घटना युद्ध में जीत रहे हेमू की हार का कारण बन गई.

इस से हेमू गिर पड़ा और सेना निरुत्साहित होकर भाग खड़ी हुई। हेमू को पकड़कर अकबर के सामने पेश किया गया।

नव किशोर अकबर ने निर्दयता पूर्वक हेमू का गला कटवा दिया। इसी के साथ अफगान मुगल के बीच चल रहे संघर्ष का पटाक्षेप हुआ और अगले 300 सालों तक दिल्ली पर मुगलों का शासन रहा।

पानीपत की तीसरी लड़ाई – THIRD PANIPAT WAR

इस लड़ाई ने भारत के भाग्य का निर्णय कर दिया जो उस समय अधर में लटक रहा था. पानीपत का तीसरा युद्ध 1761 ई. में हुआ. अफगान में अहमद अब्दाली वहाँ का नया-नया बादशाह बना था.

तीनों पानीपत युद्धो का विवरण (WAR OF PANIPAT IN HINDI)

पानीपत का तीसरा युद्ध 14 जनवरी, 1761 को पानीपत में हुआ, जो दिल्ली से लगभग 60 मील (95.5 किमी) उत्तर में स्थित है। इस युद्ध में मराठा साम्राज्य का मुकाबला अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली, जिसे अहमद शाह दुर्रानी भी कहा जाता है, से हुआ।

इस युद्ध में दोआब के रोहिला अफगानों और अवध के नवाब शुजा-उद-दौला ने अहमद शाह अब्दाली का साथ दिया।

सैन्य बल:
इस युद्ध में अफगानों और रोहिलों की भारी घुड़सवार सेना और तोपखाने (ज़बुरक और जेज़ाइल) ने अहम भूमिका निभाई, जिसका नेतृत्व अहमद दुर्रानी और नजीब-उद-दौला ने किया। उन्होंने मराठों की फ्रांसीसी आपूर्ति वाली तोपखाने और घुड़सवार सेना को पराजित कर दिया। इसे 18वीं सदी के सबसे बड़े युद्धों में गिना जाता है, जिसमें एक ही दिन में दोनों सेनाओं के बीच सबसे ज्यादा मौतें हुईं।

पृष्ठभूमि:
27 वर्षों तक चले मुगल-मराठा युद्ध (1680-1707) के बाद मुगल साम्राज्य के पतन से मराठा साम्राज्य का विस्तार तेजी से हुआ। पेशवा बाजीराव ने गुजरात और मालवा पर नियंत्रण हासिल कर लिया था। 1737 में बाजीराव ने दिल्ली के बाहरी इलाके में मुगलों को हराया और मराठा साम्राज्य ने दक्षिण के पूर्व मुगल प्रदेशों पर कब्जा जमा लिया। इस विस्तार के कारण मराठों का सामना अहमद शाह अब्दाली के दुर्रानी साम्राज्य से हुआ। 1759 में, अब्दाली ने पश्तून जनजातियों की सेना तैयार की और पंजाब में छोटे मराठा सरदारों के खिलाफ सफलता प्राप्त की। इसके बाद उसने अपने भारतीय सहयोगियों के साथ मिलकर मराठों के खिलाफ एक गठबंधन बनाया, जिसमें गांगेय दोआब के रोहिला अफगानों को शामिल किया।

शुजा-उद-दौला की भूमिका:
मराठा और अफगान दोनों ने अवध के नवाब शुजा-उद-दौला को अपने पक्ष में करने की कोशिश की। जुलाई के अंत तक, शुजा-उद-दौला ने अफगान-रोहिल्ला गठबंधन में शामिल होने का निर्णय लिया, जिसे ‘इस्लाम की सेना’ के रूप में जाना जाता था। यह मराठों के लिए रणनीतिक रूप से एक बड़ा नुकसान था, क्योंकि शुजा-उद-दौला ने अफगान सेना के लंबे प्रवास के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की, जिससे मराठों की स्थिति कमजोर हो गई।

खाद्य आपूर्ति में बाधा:
अगस्त 1760 में मराठा शिविर दिल्ली पहुंचा और शहर पर धावा बोला। इसके बाद यमुना नदी के किनारे एक मुठभेड़ और कुंजपुरा में एक युद्ध हुआ, जिसमें मराठों ने लगभग 15,000 अफगान सैनिकों को हराकर विजय प्राप्त की। हालांकि, अब्दाली ने अक्टूबर में बागपत में यमुना नदी को पार कर दिल्ली में मराठा शिविर को घेर लिया। इसके बाद पानीपत में दो महीने तक मराठों के खिलाफ घेराबंदी चली। इस घेराबंदी के दौरान दोनों पक्षों ने एक-दूसरे की आपूर्ति लाइनों को बाधित करने की कोशिश की। अफगानों ने इस प्रयास में सफलता पाई और नवंबर 1760 के अंत तक मराठा शिविर की लगभग सभी खाद्य आपूर्ति बंद कर दी। दिसंबर के अंत तक मराठा शिविर में भोजन समाप्त हो गया और बड़ी संख्या में मवेशियों की मृत्यु होने लगी। जनवरी की शुरुआत में भुखमरी से मरने वाले सैनिकों की खबरें आने लगीं।

युद्ध:
मराठा प्रमुखों ने अपने सेनानायक सदाशिव राव भाऊ से युद्ध में लड़कर मरने की अनुमति मांगी, बजाय भूख से मरने के। इस लड़ाई में लगभग 125,000 से अधिक सैनिक शामिल थे। अहमद शाह दुर्रानी के नेतृत्व में सेना ने मराठा पक्षों को हराया। युद्ध के बाद 60,000-70,000 सैनिक मारे गए, जबकि घायल और कैदियों की संख्या काफी ज्यादा थी। अगले दिन लगभग 40,000 मराठा कैदियों को मार दिया गया।

युद्ध का परिणाम:
इस युद्ध के परिणामस्वरूप उत्तर में मराठों की प्रगति रुक गई और अगले 10 वर्षों तक उनके क्षेत्रों में अस्थिरता बनी रही। हालांकि, पेशवा माधवराव के शासन के दौरान मराठा साम्राज्य ने पुनः अपने वर्चस्व को स्थापित किया। 1771 में माधवराव ने एक बड़ा अभियान चलाकर उत्तर भारत में मराठा वर्चस्व को फिर से स्थापित किया।

नोट:
पानीपत के तीनों युद्धों में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन युद्धों का कारण कभी भी पानीपत शहर नहीं रहा। पानीपत दिल्ली का प्रवेश द्वार था, और ऐतिहासिक रूप से उत्तर-पश्चिम से दिल्ली पर कब्जा करने की कोशिश करने वाले किसी भी आक्रांता को खैबर दर्रे और पंजाब से होकर आना पड़ता था।

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