फ्रांसीसियों का भारत आगमन – कर्नाटक युद्ध (Carnatic Wars in Hindi UPSC)

Carnatic Wars in Hindi UPSC


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अन्य यूरोपीय कंपनियों की भांति फ्रांसीसी कंपनी भी वाणिज्यिक गतिविधियों और विचारों की उपज थी। अन्य समकालीन यूरोपीय शक्तियों की तुलना में फ्रांसीसी शक्ति को भारतीय तटों तक पहुंचने में देर लग गई। फ्रांसीसी 17वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक मैडागास्कर इत्यादि क्षेत्रों में व्यस्त थे।

लुई चौहदवें के शासनकाल में उसके एक मंत्री कॉल्बर्ट द्वारा 1664 ई. में फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कम्पनी The compaginie Des Indes Orientales की स्थापना की गयी। यह पूर्णतः राज्याधीन थी।

1667 ई. में फ्रांसिस केरॉन की अध्यक्षता में एक अभियान दल भारत पहुंचा। 1668 ई. में इस दल ने सूरत में अपना पहला कारखाना स्थापित किया। 1669 ई. में फ्रांसीसियों ने भारत के पूर्वी तट पर स्थित मसूलीपट्टनम् नामक स्थान पर एक कारखाना स्थापित किया और फ्रांसिस मार्टिन को सूरत और मसूलीपट्टनम् की बस्तियों का उत्तरदायित्व सौंपा गया।

1672 ई. में एडमिरत डे ने गोलकुण्डा के सुल्तान से सैनथोम छीन लिया। 1673 ई. में फ्रैंको मार्टिन तथा लेस्पिने ने वलिकोण्डापुरम् के शासक शेर खां लोदी से एक छोटा क्षेत्र पुदुचेरी प्राप्त किया। फ्रैंकों मार्टिन के नेतृत्व में यहीं पाण्डिचेरी का विकास आरम्भ हुआ। हालांकि, 1698 ई. में डचों ने पाण्डिचेरी छीन लिया था, किंतु 1697 ई. की रेजविक की संधि से पुनः पाण्डिचेरी फ्रांसीसियों को दे दी गई। इसी प्रकार, 1690 ई. में मुगल गवर्नर से चंद्रनगर फ्रांसीसी कम्पनी ने प्राप्त किया।

हालांकि 1665 ईस्वी और 1695 ई. के मध्य फ्रांसीसी कम्पनी ने 74 सुसज्जित जहाज भारत भेजे थे, लेकिन अंग्रेजों और डचों की तुलना में उनकी गतिविधि अभी भी बेहद कम थे।

फ्रांसीसी कम्पनी का पुनर्गठनः फ्रांसीसी कंपनी की वित्तीय स्थिति बेहद कमजोर थी, लेकिन 1720 में इसके पुनर्गठन के पश्चात् कंपनी की स्थिति बेहतर हुई। 1791 ई. में फ्रांसीसियों ने मॉरीशस पर कब्जा कर लिया। इससे उनकी नौसैनिक शक्ति में वृद्धि हुई और अंग्रेजों से मुकाबला करने की शक्ति अर्जित की। 1725 में मालाबार तट और 1739 में कारिकल पर उन्होंने अपना कब्जा जमाया। इसके बावजूद फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी डचों और अंग्रेजों की तुलना में अपनी सरकार पर अधिक निर्भर थी। इसके पास सशक्त संगठन और पर्याप्त पूंजी का अभाव था। इसकी वाणिज्यिक गतिविधियों पर सरकार का अत्यधिक नियंत्रण था जिससे कंपनी की कार्यक्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ा। इसकी नियति और विकास फ्रांस में हो रही गतिविधियों पर काफी कुछ निर्भर था। इसके अतिरिक्त अठारहवीं शताब्दी का फ्रांसीसी समाज अपने समकालीन अंग्रेजी समाज की तुलना में कम सक्रिय था।

भारत में फ्रांसीसी शक्ति का प्रसार, फ्रांस की वैदेशिक नीति से बहुत अधिक प्रभावित था। 1672 ई. से 1713 ई. के मध्य फ्रांस प्रायः हॉलैण्ड के साथ लगातार युद्ध में व्यस्त रहा। यही वजह है कि 1706-1720 ई. की अवधि में भारत में फ्रांसीसी प्रभाव में भारी ह्रास हुआ। इसके बाद, 1720 ई. में कम्पनी का पुनर्निर्माण हुआ तथा 1742 ई. तक पाण्डिचेरी के गवर्नर लिनो (Lenior) तथा ड्यूमा (Dumas) के कूटनीतिपूर्ण शासन से फ्रांसीसी प्रभुसत्ता की पुनःप्राप्ति हुई।

1742 ई. तक भारत में फ्रांसीसियों ने अपनी गतिविधियों को व्यापार तक ही केन्द्रित रखा। परंतु, 1742 ई. के बाद फ्रांसीसियों की नीति में आमूल परिवर्तन हुआ और उन्होंने अपना उद्देश्य साम्राज्यवाद का विस्तार निर्धारित किया।

1742 ई. में डूप्ले की फ्रांसीसी गर्वनर के रूप में नियुक्ति

भारत में फ्रांसीसी व्यापार के इतिहास में एक नए अध्याय की शुरुआत थी। इसके बाद अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के मध्य तीन कर्नाटक-युद्ध हुए, जिनमें अंतिम हार फ्रांसीसियों की हुई। -सर्वोच्चता हेतु आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष सत्रहवीं शताब्दी के अंत तक अंग्रेजों ने पुर्तगाली और डच प्रतिद्वंदियों को समाप्त कर दिया था, लेकिन अठारहवीं शताब्दी में फ्रांस एक नया प्रतिद्वंद्वी बनकर सामने आया। सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में 1668 ई.में फ्रांसीसियों ने सूरत में पहली व्यापारिक कोठी स्थापित करने में सफलता पाई। 1690-92 के दौरान उन्होंने कलकत्ता में भी व्यापारिक केंद्र स्थापित कर लिया। अठारहवीं शताब्दी के आरंभिक दो वर्षों में फ्रांसीसी कम्पनी के व्यापार में काफी प्रगति हुई। फ्रैंच-ईस्ट इंडिया कम्पनी तथा ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच संघर्ष का मुख्य कारण व्यापार में एकाधिकार और राजनीतिक नियंत्रण था।

यद्यपि आरंभ में फ्रैंच-ईस्ट इंडिया कम्पनी का मूलोद्देश्य व्यापार मात्र था, 1742 में पांडिचेरी के गवर्नर पद पर डूप्ले की नियुक्ति के साथ ही उसके राजनीतिक उद्देश्य भी सामने आने लगे। 1746 ई. में फ्रांसीसियों ने मद्रास पर कब्जा कर लिया।

तत्कालीन भारत का स्वरूप एकीकृत न होकर स्थानीय क्षेत्रों में विभक्त था। इस स्थिति का लाभ सभी यूरोपीय कंपनियों को हुआ। दक्षिणी क्षेत्रों में विशेषकर कर्नाटक, मद्रास और पांडिचेरी में राजनीतिक अनिश्चितता कायम थी। 1740 में यूरोप में ऑस्ट्रियाई उत्तराधिकार का युद्ध फ्रांस व इंग्लैण्ड के परस्पर संघर्ष का समय रहा। उस युद्ध में इंग्लैण्ड का विशेष ध्यान ऑस्ट्रिया की ओर था, इसलिए उनका कोई जहाजी बेड़ा मद्रास के समुद्री तट पर तैनात नहीं था, लेकिन वहां फ्रांसीसी जहाजी बेड़ा उपस्थित था। इस स्थिति का फ्रांसीसियों ने पूरा लाभ उठाया और मद्रास पर कब्जा कर लिया। दो वर्ष बाद यूरोप में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच युद्ध की समाप्ति एक्स-ला-शापेल की संधि के साथ हुई। इस संधि के अनुसार मद्रास ईस्ट इंडिया कम्पनी को लौटा दिया गया।

1740 से 1765 ई. के बीच अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच युद्ध चलता रहा। कर्नाटक, दक्कन के सूबेदार के अधीन एक प्रांत था जिसका शासन नवाब के हाथों में था। व्यापारिक अधिकार के लिए अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच तीन युद्ध हुए

प्रथम कर्नाटक युद्ध (1740-1748 ई.)

यह युद्ध 1740 ई. से 1748 ई. के बीच लड़ा गया था। युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से कर्नाटक के नवाब पद के उत्तराधिकार का संघर्ष दृष्टिगोचर हो रहा था, परंतु अप्रत्यक्ष रूप से इसमें ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी और फ्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी की शक्तियां लड़ रही थीं। इस युद्ध में फ्रांसीसी शक्ति पूरे समय तक हावी रही, परंतु आपसी मनमटाव के कारण वे लाभ उठाने में असमर्थ रह। – अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों की व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता ही इस युद्ध का सर्वप्रमुख कारण था, क्योंकि दोनों कम्पनियां एक दूसरे के व्यापार को हानि पहंचाकर लाभ उठाने की कोशिश कर रही थीं। 1740 ई. में ऑस्ट्रिया का उत्तराधिकार का यद्ध शुरू हुआ। इस युद्ध का प्रभाव भारत में भी अंग्रेजों एवं फ्रांसीसियों पर हुआ। चूंकि यूरोप में अंग्रेज और फ्रांसीसी आपस में लड़ रहे थे, इसलिए भारत में भी वे लड़ने लगे। ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार के युद्ध का समाचार जिस समय भारत पहुंचा, उस समय पाण्डिचेरी का फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले था और मद्रास का अंग्रेज गवर्नर मोर्स था। मद्रास तथा पाण्डिचेरी के बंदरगाह कर्नाटक राज्य में आते थे। डूप्ले ने कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन से निवेदन किया कि वह अपने राज्य में किसी प्रकार का युद्ध न होने दे। इसके पूर्व उसने मोर्स से भी युद्ध न होने देने का प्रस्ताव किया था।

डूप्ले ने कूटनीति का सहारा लिया और आरम्भ में अंग्रेजों को शांत करने के पश्चात् उसने सितम्बर, 1746 में मॉरीशस के गवर्नर लाबोर्होने की सहायता से मद्रास को अपने अधिकार में ले लिया। इस बीच डूप्ले और लाबोोने के बीच मतभेद हो गया तथा लाबो ने चार लाख पौण्ड की रिश्वत लेकर मद्रास फिर से अंग्रेजों को सौंप दिया। लाबो ने के मॉरीशस वापस जाने पर डूप्ले ने फिर से मद्रास पर अधिकार कर लिया।

डूप्ले ने कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन को यह आश्वासन दिया था कि वह मद्रास को जीतने के बाद उसे सौंप देगा। परंतु, डूप्ले ने ऐसा नहीं किया। इस कारण अनवरुद्दीन के पुत्र महफूज खां ने विशाल सेना की सहायता से फ्रांसीसियों पर आक्रमण कर दिया। डूप्ले के नेतृत्व में फ्रांसीसी सेना ने अडयार के समीप नवाब की सेना को पराजित कर दिया।

मद्रास तथा नवाब की सेना पर विजयों से फ्रांसीसियों की महत्त्वाकांक्षा बढ़ गई और उन्होंने पॉण्डिचेरी के दक्षिण में स्थित अंग्रेजों की एक अन्य बस्ती फोर्ट सेंट डेविड पर अधिकार करने का प्रयास किया, परंतु लगभग डेढ़ वर्ष के घेरे के बाद भी डूप्ले इस बस्ती पर अधिकार करने में असमर्थ रहा। इस बीच इंग्लैण्ड से भारत में अंग्रेजों की सहायता के लिए सेना पहुंच गयी। इस सहायता से उत्साहित होकर अंग्रेजों ने भी पॉण्डिचेरी का घेरा डाल दिया, परंतु उस पर अधिकार करने में अंग्रेज भी असफल रहे और उन्हें फोर्ट सेंट डेविड वापस आना पड़ा।

1748 ई. में यूरोप में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच एक्स-ला-शापेल की संधि हुई जिससे यूरोप में युद्ध समाप्त हो गया। इस संधि के परिणामस्वरूप भारत में भी दोनों पक्षों के बीच युद्ध समाप्त हो गया। इस संधि के प्रावधानों के तहत अंग्रेजों को भारत में मद्रास तथा फ्रांसीसियों को उत्तरी अमरीका में लुईसबर्ग फिर से प्राप्त हो गए।

प्रथम कर्नाटक युद्ध का कोई तात्कालिक राजनीतिक प्रभाव भारत पर नहीं पड़ा-न तो इस युद्ध से फ्रांसीसियों को कोई लाभ हुआ और न ही अंग्रेजों को। इस युद्ध ने भारतीय राजाओं की कमजोरियों को उजागर किया। प्रथम कर्नाटक युद्ध के समय से जल सेना का महत्त्व बढ़ा |

द्वितीय कर्नाटक युद्ध (1751-1755 ई.)

यह युद्ध 1751 ई. से 1755 ई. के बीच लड़ा गया। इस युद्ध की पृष्ठभूमि भारतीय परिस्थितियों में निर्मित हुई थी। कर्नाटक में हैदराबाद के निजाम एवं मराठों के हस्तक्षेप से युद्ध की परिस्थितियां उत्पन्न हुई थीं। 1748 ई. में हैदराबाद के निजाम आसफजाह निजामुल्मुल्क का देहावसान हो जाने पर उसके पुत्र मुजफ्फरजंग तथा नासिरजंग के बीच उत्तराधिकार का युद्ध शुरू हो गया। ठीक उसी समय कर्नाटक में भी इसी प्रकार का संघर्ष कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन तथा भूतपूर्व नवाब दोस्त अली के दामाद चंदा साहब के बीच शुरू हो गया। । हैदराबाद और कर्नाटक के उत्तराधिकार के युद्ध में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने खुलकर भाग लिया। अंग्रेजों ने हैदराबाद में नासिरजंग का तथा कर्नाटक में अनवरुद्दीन का साथ दिया, जबकि फ्रांसीसियों ने कर्नाटक में चंदा साहब को और हैदराबाद में मुजफ्फरजंग का साथ दिया। इस कारण एक बार फिर दोनों यूरोपीय शक्तियां आपस में लड़ पड़ीं। उधर 1749 ई. में तंजावुर में भी उत्तराधिकार का युद्ध शुरू हो गया। इस युद्ध में भाग लेकर अंग्रेजों ने देवी कोटाई नामक क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया। इससे फ्रांसीसी क्षुब्ध हो गए और अंग्रेजों का विरोध करने लगे।

फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले चंदा साहब तथा मुजफ्फरजंग से संधि करने के पश्चात अपने समर्थकों को सत्तासीन करने का प्रयत्न करने लगा। डूप्ले ने इन दोनों की सहायता से कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन पर आक्रमण कर दिया। 3 अगस्त, 1749 ई. को वेल्लोर के निकट अम्बर के युद्ध में पराजित होकर अनवरुद्दीन मारा गया। युद्ध क्षेत्र से अनवरुद्दीन का पुत्र मुहम्मद अली भाग गया। इस तरह कर्नाटक पर चंदा साहब का अधिकार हो गया। डूप्ले की सहायता से प्रसन्न होकर चंदा साहब ने पाण्डिचेरी के निकट एक विशाल क्षेत्र फ्रांसीसियों को उपहारस्वरूप प्रदान किया।

कर्नाटक में फ्रांसीसी प्रभाव को सीमित करने के लिए अंग्रेजों ने हैदराबाद के नासिरुद्दीन को कर्नाटक के विरुद्ध आक्रमण के लिए प्रेरित किया। 1750 ई. में नासिरजंग ने कर्नाटक पर आक्रमण किया। नासिरजंग ने मुजफ्फरजंग को बंदी बना लिया। इस समय डूप्ले ने कूटनीति का सहारा लिया और नासिरजंग के सैन्य अधिकारियों को प्रलोभन देकर अपने पक्ष में कर लिया। इन अधिकारियों ने 1750 ई. के अंत में नासिरजंग की हत्या कर दी। मुजफ्फरजंग को हैदराबाद का नवाब घोषित कर दिया गया। परंतु, मुजफ्फरजंग की पद पर आसीन होने के पूर्व ही हत्या कर दी गयी। इस स्थिति में नासिरजंग के छोटे भाई सलावतजंग को हैदराबाद का नवाब बनाया गया। सलावतजंग ने फ्रांसीसियों को उपहारस्वरूप उत्तरी प्रदेश प्रदान किया।

1751 ई. में अंग्रेजों की ओर से मद्रास में साण्डर्स को गवर्नर बनाया गया। उसने कर्नाटक में मुहम्मद अली की सहायता के लिए मई, 1751 ई. में अंग्रेजी सेना त्रिचनापल्ली की ओर भेज दी। परिस्थितियों को देखते हुए फ्रांसीसियों ने भी चंदा साहब की रक्षा के लिए सेना भेज दी। दोनों ओर से सेना भेजे जाने के कारण कर्नाटक युद्धक्षेत्र बन गया। इसी वर्ष तंजावुर और मैसूर के शासक तथा मराठा सरदार मुरारी राव अंग्रेजों के पक्ष में हो गए, जिससे परिस्थितियां और विकट हो गईं।

जब अंग्रेज और फ्रांसीसी त्रिचनापल्ली की घेरेबंदी में लगे थे, ठीक उसी समय रॉबर्ट क्लाइव ने गवर्नर साण्डर्स को कर्नाटक की राजधानी अर्काट पर आक्रमण करने की सलाह दी। अगस्त, 1751 ई. में क्लाइव ने अर्काट पर विजय प्राप्त कर ली। चंदा साहब को जब इसका समाचार मिला, तब उसने अपने पुत्र रजा खां के नेतृत्व में एक विशाल सेना अर्काट की ओर भेजी। रजा खां ने अर्काट में क्लाइव को घेर लिया और उस पर दबाव बनाने में भी सफल रहा, परंतु इसी बीच मेजर लॉरेंस की अध्यक्षता में एक अंग्रेजी सेना क्लाइव की सहायता के लिए पहुंच गई। रजा खां को विवशतापूर्वक पीछे हटना पड़ा।

अर्काट में जीत हासिल करने के बाद क्लाइव आर लारस न अपन कदम आगे बढ़ाए और 1751 ई. में ही चंदा साहब तथा फ्रांसीसी कमांडर लॉ को पराजित कर त्रिचनापल्ली पर अधिकार कर लिया। चंदा साहब तत्काल भागने में सफल रहा, परंतु बाद में उसकी हत्या कर दी गयी। अंग्रेजों ने चंदा साहब की जगह मुहम्मद अली को कर्नाटक का नवाब बनाया।

विपरीत परिस्थितियों में भी फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले ने अपना धैर्य बनाए रखा और शीघ्र ही मराठों तथा मैसूर के शासक को अपने पक्ष में कर लिया। उसने तंजावुर के शासक को तटस्थ रहने का परामर्श दिया तथा 1753 ई. में फिर से त्रिचनापल्ली का घेरा डाला। 1753 ई. में अंग्रेजो और फ्रांसीसियों की जीत का सिलसिला चलता रहा। फ्रांस की सरकार डूप्ले की लगातार संघर्ष की नीति से तंग आ गयी थी और इसीलिए उसने डूप्ले को फ्रांस बुलाने का निर्णय लिया। डूप्ले को फ्रांस बुला लिया गया तथा उसकी जगह गोडा को गवर्नर नियुक्त किया गया। गोडह्यू अदूरदर्शी राजनीतिज्ञ था, इसलिए भारत में अपना पद संभालने के साथ ही अंग्रेजों के साथ समझौते के लिए वार्ताएं शुरू कर दी।

1755 ई. में अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों के बीच पाण्डिचेरी में संधि हो गयी और द्वितीय कर्नाटक युद्ध समाप्त हो गया। संधि में इस प्रावधान को केंद्रित किया गया कि दोनों शक्तियां भारतीय राज्यों के आंतरिक मामलों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगी। अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने एक-दूसरे के विजित प्रदेशों को वापस कर दिया। यह भी प्रावधान किया गया कि यदि दोनों देशों की सरकारें इसे मान्यता प्रदान कर देंगी, तो यह संधि स्थायी होगी। 1755 ई. में ही फ्रांस तथा इंग्लैण्ड के बीच सप्तवर्षीय युद्ध शुरू हो गया और पाण्डिचेरी की संधि अप्रासंगिक हो गयी।

द्वितीय कर्नाटक युद्ध ने भारतीय इतिहास पर दूरगामी प्रभाव छोड़ा। इस युद्ध के दौरान इप्ले के नेतृत्व में फ्रांसीसी, अंग्रेजों पर हावी रहे थे, किंतु युद्ध के अंतिम समय में डूप्ले को वापस बुला लिए जाने से फ्रांसीसियों का प्रभाव घटने लगा। इस युद्ध के अंत ने भारत में डूप्ले की सफलताओं को खाक कर दिया, जबकि इस समय से रॉबर्ट क्लाइव का महत्त्व बढ़ने लगा। वस्तुतः, पाण्डिचेरी की संधि द्वारा अंग्रेजों ने वह सब कुछ प्राप्त कर लिया, जिसकी प्राप्ति के लिए डूप्ले के नेतृत्व में फ्रांसीसी प्रयासरत थे। कर्नाटक के द्वितीय युद्ध ने स्पष्ट कर दिया कि भारत में आने वाला समय अंग्रेजों का है। फ्रांसीसी अपने देश की अंतर्विरोधात्मक नीतियों के चंगुल में फंसे थे, जबकि अंग्रेजों को उनके देश ने पूर्ण सहयोग दिया। वस्तुतः, फ्रांसीसी गवर्नर गोडा ने भारत में फ्रांसीसियों के पतन का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

ततीय कर्नाटक युद्ध (1758-1763 ई.)

द्वितीय कर्नाटक युद्ध की समाप्ति पाण्डिचेरी की संधि से हुई थी। पाण्डिचेरी की संधि अस्थायी साबित हुई। 1756 ई. में यूरोप में फ्रांसीसियों और अंग्रेजों के बीच सप्तवर्षीय युद्ध शुरू हो गया। इस युद्ध ने एक बार फिर भारत में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच युद्ध का वातावरण उपस्थित कर दिया। तृतीय कर्नाटक युद्ध 1758 ई. से 1763 ई. के बीच लड़ा गया।

भारत में अंग्रेजों के बढ़ते वर्चस्व को रोकने के लिए फ्रांसीसी सरकार ने सेनापति काउण्ट-डी-लाली को एक विशाल सेना के साथ भारत भेजा। लाली अप्रैल, 1758 ई. में भारत पहुंचा। जब तक वह भारत पहुंचता, तब तक अंग्रेजों ने बंगाल पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। बंगाल-विजय से अंग्रेजों की स्थिति सुदृढ़ हो चुकी थी। 1757 ई. में रॉबर्ट क्लाइव ने वाट्सन के सहयोग से बंगाल में फ्रांसीसियों की महत्त्वपूर्ण बस्ती चंद्रनगर पर भी अधिकार कर लिया था। इसी वर्ष अंग्रेजों ने प्लासी के युद्ध में विजय प्राप्त कर बंगाल पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया।

लाली ने भारत में आने के बाद सबसे पहले अंग्रेजों की बस्ती फोर्ट सेंट डेविड पर घेरा डाला और जून, 1758 में उस पर कब्जा कर लिया। फोर्ट सेंट डेविड को जीतने के बाद लाली ने तंजावुर का घेरा डाला। यह घेरा बहुत लंबे समय तक रहा, जिसका पूरा-पूरा फायदा अंग्रेजों ने उठाया। अंग्रेजों ने एक सैनिक टुकड़ी बंगाल से तंजावुर की ओर भेजी। बाद में लाली को मजबूरीवश तंजावुर पर से घेरा उठाना पड़ा और इससे फ्रांसीसियों के प्रभाव में कमी आयी।

तंजावुर से खाली हाथ लौटने के बाद लाली ने मद्रास पर घेरा डालने का निर्णय लिया। इसके लिए उसने हैदराबाद के गवर्नर बुस्सी को सहयोग के लिए बुलाया। बुस्सी के हैदराबाद छोड़ने का अंग्रेजों को लाभ हुआ। अंग्रेज कर्नल फोर्ड ने उत्तरी सरकार पर अधिकार कर लिया और भयवश हैदराबाद का शासक सलावतजंग भी अंग्रेजों के\ पक्ष में हो गया। फ्रांसीसी मद्रास का घेरा डालने में तो सफल रहे, परंतु बाद में खाली हाथ ही यहां का घेरा भी उठाना पड़ा।

मद्रास के घेरे के एक वर्ष बाद तक अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों के बीच छोटी-मोटी झड़पें होती रहीं, जिसमें फ्रांसीसियों का प्रभाव दिन-ब-दिन घटता गया। 1759 ई. में अंग्रेजी सेनानायक कूक एक विशाल सेना के साथ मद्रास पहुंचा। 1760 ई. में मद्रास तथा पाण्डिचेरी के बीच स्थित वाण्डिवाश नामक स्थान में अंग्रेजी सेना ने फ्रांसीसी सेना को बुरी तरह पराजित किया। फ्रांसीसी सेनापति बुस्सी बंदी बना लिया गया। वस्तुतः, वाण्डिवाश के युद्ध ने भारत में फ्रांसीसियों के भाग्य का अंत कर दिया।

1763 ई. में यूरोप में फ्रांसीसियों एवं अंग्रेजों के बीच पेरिस में संधि हो गई। इस संधि के बाद भारत में भी दोनों शक्तियों के बीच संघर्ष समाप्त हो गया। पाण्डिचेरी, चंद्रनगर आदि प्रदेश संधि के तहत फ्रांसीसियों को लौटा दिए गए। परंतु, संधि में यह शर्त भी रखी गयी कि फ्रांसीसी भारत में सेना नहीं रख सकेंगे। इस संधि के वार फ्रांसीसियों ने अंग्रेजों का विरोध करना छोड़ दिया और अपना सारा ध्यान व्यापार केंद्रित कर लिया। पेरिस की संधि ने भारत में फ्रांसीसी साम्राज्य के विस्तार के लि डप्ले द्वारा रखी गयी मजबूत नींव को उखाड़ कर फेंक दिया। फ्रांसीसियों की पराजय ने भारत के लिए राजनीतिक गुलामी का मार्ग खोल दिया। पुर्तगालियों एवं डचों को पराजित करने के बाद फ्रांसीसियों को हराकर अंग्रेजों ने अपना एकछत्र राज्य स्थापित कर लिया।

तीसरे कर्णाटक युद्ध का परिणाम

अंग्रेज़ विजयी हुए

2 Comments

  1. […] अंग्रेजी कंपनी को विशेषाधिकार देने से बंगाल प्रांत का प्रशासन बेहद नाराज था क्योंकि इससे प्रांतीय राजकोष को बड़ी हानि उठानी पड़ रही थी। इसलिए अंग्रेजी व्यापारिक हितों एवं बंगाल सरकार के बीच यह मतभेद का मुख्य कारण बना। 1737 और 1765 की अल्पावधि के बीच शक्ति का प्रवाह धीरे-धीरे बंगाल के नवाबों से अंग्रेजों को होने लगा […]

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