डच ( डचों )का भारत आगमन

डच ( डचों )का भारत आगमन


डच – आगमन एवं गतिविधियां

स्पेन का पतन होने के पश्चात् पुर्तगाली शक्ति बिखर गई और सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक डचों ने उसका स्थान ग्रहण कर लिया। सोलहवीं शताब्दी से ही डच अपनी वाणिज्यिक और नौसैनिक शक्ति को बढ़ा रहे थे। वे पुर्तगालियों द्वारा लाए गए पूरब के सामान को लिस्बन से एंटवर्प पहुंचाया करते थे, जहां से वह यूरोप के बाजारों में पहुंचाया जाता था। डचों ने व्यापारिक संगठन और तकनीक तथा जहाजरानी में नवीन प्रयोग किए। सत्रहवीं शताब्दी में उन्होंने फ्लूटशिप का निर्माण किया, जो अपने आप में एक अनोखा और अद्भुत जहाज था। यह फ्लूटशिप बेहद हल्का था और इसे खेने के लिए कम लोगों की जरूरत पड़ती थी। इससे आने-जाने के खर्च में कटौती हुई। डच जहाज भारी और धीमी गति से चलने वाले पुर्तगाली जहाजों से श्रेष्ठ सिद्ध हुए। डचों ने नीदरलैंड से स्पेनवासियों को हटाने के लिए कड़ा संघर्ष किया था। उन्होंने एक राष्ट्रीय भावना के अंतर्गत भी पुर्तगालियों से मसाले का व्यापार छीनने का भी संकल्प किया।

डचों ने अंग्रेजों की भांति भारत समेत अंतरराष्ट्रीय व्यापार व्यवस्था को एक नया मोड दिया था। डचों की व्यापारिक कम्पनी की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि यह पूर्णतः व्यापारिक संस्था थी। सत्रहवीं शताब्दी में हॉलैण्ड यूरोप में आरम्भिक वाणिज्यवादी गतिविधियों का एक प्रमुख केंद्र था। एम्स्टर्डम में 1609 ई. में एक्सचेंज बैंक तथा 1614 ई. में क्रेडिट बैंक ऑफ एम्स्टर्डम आरंभ हुए। एशियाई वस्तुओं की बिक्री एमस्टर्डम में होने लगी, जिससे कि यह पुनः निर्यात-व्यापार का एक मुख्य केंद्र बन गया। एशियाई वस्तुओं के व्यापार द्वारा अधिक मुनाफा कमाने की महत्वाकांक्षा ने डचों को हिंद-महासागरीय एवं एशियाई क्षेत्रों की ओर प्रवृत्त किया।

डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापनाः यह एक वाणिज्यिक उद्यम था जिसने डव को पूरब की यात्रा करने के लिए प्रवृत्त किया। कार्नेलिस डी हाउटमेन पहला डच था, जो 1596 में सुमात्रा और बंताम पहुंचा। इसने डच को आगामी उद्यम के लिए प्रोत्साहित किया, और अगले कुछ वर्षों के दौरान भारतीय व्यापार के लिए एक नई कंपनी बनाई गई। मार्च, 1602 ई. में डच संसद द्वारा पारित उद्घोषणा से डच संयुक्त कम्पनी की स्थापना हुई, जिसमें कई स्वतंत्र एवं समृद्ध डच व्यापारी सम्मिलित हो गए। डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी ‘Vereenigde Oost-Indische Compagnie (VOC) की कुल आरम्भिक पूंजी 6,500.000 गिल्डर थी। इस कम्पनी को भू-मध्यसागर के पूर्व में व्यापार करने की अनुमति मिली थी। कम्पनी का पूर्वी केंद्र बेटविया में स्थित था।

भारत में डच फैक्ट्रियों की स्थापनाः डचों ने भारत और हिंद महासागरीय-क्षेत्रों में पुर्तगाली सत्तो को चुनौतियां देते हुए अनेक बस्तियों और व्यापारिक केंद्रों की स्थापना की। भारत में डच संस्थापना की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि पुलिकट स्थित गेलड्रिया के दुर्ग को छोड़कर शेष बस्तियां अदुर्गीकृत थीं। भारत के पूर्वी भाग, पूर्वी तटीय क्षेत्र और पश्चिमी तट पर डचों ने अपनी फैक्ट्रियां स्थापित की

1605 ई. में मसुलीपट्टम में, 1610 ई. में पुलिकट में, 1616 ई. में सूरत में, बिमिलिपट्टम (1641 ई.) में, 1645 ई. में करिकल में, 1653 ई. में चिंन्सुरा में; 1658 ई. में कासिमबाजार, पटना, बालासोर व नेगापट्टम में तथा 1663 ई. में कोचीन में डचों ने अपनी फैक्ट्रियां स्थापित की।

भारत के अतिरिक्त, बाह्य समीपवर्ती क्षेत्रों पर भी डचों ने अपना प्रभुत्व जमाया था। डचों ने 1605 ई. में अम्बोयना, 1619 ई. में मसाला द्वीप, तथा 1658 ई. में श्रीलंका जीते। 1641 ई. में मलक्का में भी डचों की पूर्तगालियों पर विजय हई। भारत में अपनी व्यापारिक धाक जमाने में डचों को स्थानीय शासकों से व्यापारिक सुविधाएं मिलीं। गोलकुण्डा के सुल्तान; जिंजी, मदुरै और तंजौर (तंजावुर) के नायकों ने डचों को कम शुल्क पर व्यापार करने की छूट दी। कोचीन के मुट्टा शासन ने विशेष व्यापारिक सुविधाएं प्रदान की, जिनमें सबसे महत्त्वपूर्ण था, पुड़ाक्कड़ और क्रांगनूर के मध्य-क्षेत्र में काली मिर्च के व्यापार का एकाधिकार। उत्तरी तथा दक्षिणी कोरोमण्डल में डचों को चुंगी में रियायत मिली तथा वस्त्र-व्यापार में उन्हें मुहर शुल्क से मुक्त कर दिया गया, जबकि अन्य विदेशी व्यापारिक कंपनियों को यह कर देना पड़ता था।

पुर्तगाली सत्ता पर डचों का प्रहार


डच ( डचों )का भारत आगमन

डचों की व्यापारिक संस्था वोक (VOC) एक नवीन प्रकार की संस्था थी और डचों के इस प्रयोग से पुर्तगालियों की व्यापारिक सत्ता को तोड़ने में मदद मिली। मुनाफे और पूंजी पर नियंत्रण तथा उनके निवेश द्वारा स्थायी पूंजी का निर्माण कम्पनी की मुख्य कार्यनीति थी। 1632 ई. में हुगली-क्षेत्र से पुर्तगालियों को डचों ने हटाना शुरू किया। 1658 ई. में श्रीलंका से डचों ने पुर्तगालियों को हटाया। 1659 ई. में तंजौर तट पर स्थिति नेगापट्टम् डचों ने पुर्तगालियों से जीता।

डच व्यापारः एशियाई सम्पर्क के आरंभिक चरण में डच मूलतः काली मिर्च एवं अन्य मसालों के प्रति रुचि रखते थे। चूंकि, ये मसाले मुख्यतः इण्डोनेशिया में मिलते थे, अतः डचों का वह मुख्य केंद्र बन गया। इन्होंने कोरोमण्डल तट से भारतीय वस्त्रों को दक्षिण-पूर्व एशिया में लाकर भारी मुनाफा कमाया। मद्रास के दक्षिण में से ड्रासपट्टम् विशेष वस्त्र हेतु प्रसिद्ध था। एशियाई व्यापार में पुर्तगाली सर्वोच्चता को तोड़ने के लिए डचों ने उनके जहाजों पर प्रहार किए और स्थलीय अड्डों पर आक्रमण किए।

मसुलीपट्टम् से नील का निर्यात किया जाता था। डचों ने शोरे के निर्यात-व्यापार को बहुत प्रोत्साहित किया। अफीम, रेशम और सूती-वस्त्र को जावा और चीन में बेचकर डचों ने लाभ कमाया।

डच, दलालों के माध्यम से बुनकरों से सम्पर्क करते थे। वैसे, कभी-कभी वे कारीगरों को सीधा रोजगार भी देते थे। गोलकुण्डा के एक गांव के निवासी जब लगान नहीं चुका सके, तब डचों ने लगान की रकम चुकाकर, उनसे सेवाएं प्राप्त की। 1650 के दशक में डच कम्पनी ने कासिम बाजार में स्वयं रेशम की चक्री का उद्योग स्थापित किया था।

डच-अंग्रेज संघर्ष

बेदरा युद्ध 1759

Battle of Rossbach - Wikipedia

समस्त 17वीं शताब्दी के दौरान, डच ने पुर्तगालियों के प्रभाव को समाप्त करके पूरब में मसाले के व्यापार पर एकाधिकार सुनिश्चित कर लिया। मसाले के व्यापार पर उनके अधिकार, कंपनी की संपत्ति और उनकी योग्यता ने इन सभी क्षेत्रों में व्यापार में उनके एक बड़े हिस्से को सुनिश्चित किया। पुर्तगालियों द्वारा नियंत्रित अंतर-एशियाई व्यापार पर डच ने कब्जा कर लिया। पुर्तगालियों के नियंत्रित क्षेत्रों गोवा, मालाबार के कारखाने और श्रीलंका के साथ उनके दाल चीनी के व्यापार पर कई आक्रमण किए गए। व्यापार के दिनों में गोवा को चारों तरफ से बंद कर दिया गया।

1641 में मलक्का पर कब्जा कर लिया गया और 1655-56 में कोलम्बो और 1659-63 में कोचिन पर कब्जा हासिल कर लिया गया। इसके साथ ही डचों ने वास्तविक रूप से पुर्तगालियों का वर्चस्व समाप्त कर दिया, लेकिन अंग्रेजों के रूप में। उनका एक प्रतिद्वंदी बाकी था। उन्होंने यमुना घाटी और मध्य भारत में नील का उत्पादन, कपड़ा एवं सिल्क का बंगाल, गुजरात एवं कोरोमण्डल, बिहार में साल्टपीटर (शोरा) और अफीम तथा चावल का उत्पादन गंगा घाटी में किया।

सत्रहवीं शताब्दी के मध्य से भारत तथा हिंद-महासागरीय क्षेत्र में प्रभुता की स्थापना के लिए डच और अंग्रेजों में संघर्ष आरंभ हो गए। सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में तीन आंग्ल-डच-युद्ध’ यूरोप में लड़े गए जिनमें अंग्रेजों की विजय हुई।

उल्लेखनीय है कि 1717 ई. में अंग्रेजों को मुगल व्यापारिक फरमान मिलने पर डच शक्ति पिछड़ने लगी। तीसरे एंग्लो-डच युद्ध (1672-74) में, सूरत और बॉम्बे की अंग्रेजों की नई बस्ती के बीच संचार निरंतर ध्वस्त होने लगे, दो-तीन अंग्रेजी जहाजों पर बंगाल की खाड़ी में कब्जा कर लिया। 1759 में बेदरा युद्ध में अंग्रेजों द्वारा पराजित होने पर भारत में डच महत्वाकांक्षाएं चकनाचूर हो गईं और डच शक्ति पूर्वी एशिया के द्वीपों तक सिमट कर रह गई। – डचों का पतन लगभग तीन शताब्दियों तक पूर्वी द्वीप समूहों पर डचों का अधिकार रहा. परंत अंग्रेजों ने भारत में उन्हें स्थापित नहीं होने दिया। जिस शक्ति के साथ डचों ने पर्तमान को पराजित किया था, वह शक्ति अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई में काम नहीं आ सकी।

आरंभिक वर्षों में डचों एवं अंग्रेजों के बीच अच्छे संबंध थे, किंतु बाद में व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता के कारण वे एक-दूसरे के शत्रु बन गए। आरम्भ में डचों ने कुछ हद तक अंग्रेजों का मुकाबला भी किया, परंतु बाद में अंग्रेजों ने उन्हें दबा दिया।

डच कम्पनी राष्ट्रीय अधिकारिता में थी, जिससे डच कर्मचारियों में अंग्रेजी कम्पनी के कर्मचारियों के समान नेतृत्व की भावना तथा उत्साह का अभाव था। डच कम्पनी के अधिकारियों का वेतन बहुत कम था, इसलिए वे अपने निजी व्यापार में ही ज्यादा सक्रियता दिखाते थे। प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से वे कम्पनी के हितों की अनदेखी करते थे। अधिकारियों की उपेक्षापूर्ण नीति के कारण डच कम्पनी की स्थिति निरंतर खराब होती गयी।

हॉलैण्ड लम्बी अवधि तक पराधीन रहा था, इसलिए उसके पास साधनों की पर्याप्तता नहीं थी, जबकि दूसरी ओर इंग्लैण्ड सदा स्वाधीन रहा था और उसके पास साधनों की प्रचुरता थी। इसलिए, इंग्लैण्ड अपनी इच्छा के अनुसार साधनों एवं शक्ति में वृद्धि करने तथा आवश्यकतानुसार उनका उपयोग करने में भी सफल रहा। बाद के वर्षों में डच व्यापारियों ने भारत की अपेक्षा दक्षिण-पूर्वी एशिया के मसालों के द्वीपों। का ओर अपना ध्यान केंद्रित किया। इन्हीं द्वीपों में अपनी विकासात्मक गतिविधिया को कंद्रित करने के कारण डचों को भारत में स्थित अपनी बस्तियों से हाथ धोना पड़ा।

यूरोप में अपनी स्थिति खो देने तथा समद्र पर अधिकार खो देने के पश्चात् काई भी शक्ति पूर्व में अपनी प्रमखता नहीं बनाए रख सकती थी और ऐसा ही डचों के साथ भी हुआ। डचों ने यूरोप में फ्रांसीसियों तथा अंग्रेजों से यद्ध करके अपनी शक्ति में हास। कर लिया था और इस कारण वे पूर्व में अपने साम्राज्य को कायम रखने में असफल हो गए।

डेन्स 1661

डेन्स भारत में यूरोपीय व्यापारिक शक्तियों के आगमन के संदर्भ में डेनमार्क के व्यापारियों (डेन्स) का उल्लेख करना भी जरूरी है। डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1616 में हुई। इसने 1620 ई. में ट्रैंकोबार (तमिलनाडु) के पूर्वी तट पर एक कारखाना स्थापित किया। डेन्स अपनी व्यापारिक गतिविधियों से अधिक मिशनरी गतिविधियों के लिए जाना जाता था। डेन्स ने कलकत्ता के नजदीक सेरामपुर में 1755 से मुख्य व्यापारिक बस्ती की स्थापना की और यह इनकी व्यापारिक गतिविधियों का मुख्य केंद्र रहा।

भारत में अपनी वाणिज्यिक अवस्थापनाओं, जो कभी भी महत्वपूर्ण नहीं रहीं, 1854 ई. में ब्रिटिश सरकार को बेच दी गईं।


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