अर्थव्यवस्था और अर्थव्यवस्था के प्रकार The Economy & Its Type


अर्थशास्त्र और अर्थव्यवस्था (Economics and The Economy)

अर्थशास्त्र और अर्थव्यवस्था के बीच के संबंध को सामान्य सिद्धांत और अभ्यास के संबंध के रूप में देख सकते है। अर्थशास्त्र सिद्धांतों, रोजगार इत्यादि की बात करता है जबकि अर्थव्यवस्था क्षेत्र विशेष में सिद्धांतों को अपनाने के बाद की वास्तविक तस्वीर होती है। इसे इस रूप में भी समझ सकते है- अर्थव्यवस्था (Economy) किसी विशेष प्रदेश का अर्थशास्त्र (Economics) होता है। वर्तमान में विशेष प्रदेश को आप देश के तौर पर देख सकते हैं-भारतीय अर्थव्यवस्था, रूसी अर्थव्यवस्था इत्यादि। यानी अपने आप में अर्थव्यवस्था का कुछ मतलब नहीं होता, लेकिन जैसे ही किसी देश, किसी क्षेत्र का नाम इससे जोड़ देते हैं, इसका मतलब साफ हो जाता है।

अर्थव्यवस्थाओं की मुख्य चुनौतियां (Main Challenges of Economies)

चाहे समय कुछ भी रहा हो अर्थव्यवस्थाओं की मूल चुनौती रही है-अपनी जनसंख्या को आवश्यकता की वस्तुओं और सेवाओं (goods and services) को उपलब्ध कराना। वस्तुओं की श्रेणी में आवश्यक मदें, यथा-भोजन, आवास, वस्त्र इत्यादि से लेकर गैर-आवश्यक मदें, यथा- रेफ्रीजरेटर, टी.वी., कार इत्यादि हो सकती हैं। इसी प्रकार, जनसंख्या को जिन सेवाओं की आवश्यकता होती है, वे स्वास्थ्य, शिक्षा, पेयजल से लेकर उच्चतर प्रकार की सेवाएँ, जैसे-बैंकिंग, बीमा, वायु परिवहन, टेलीफोन, इंटरनेट इत्यादि तक हो सकती हैं। कोई अर्थव्यवस्था जैसे-जैसे विकास की ओर अग्रसर होती है उसकी वस्तुओं एवं सेवाओं की मात्रा और प्रकार दोनों बढ़ती जाती हैं। सीमित संसाधनों का ईष्टतम् (optimum) दोहन करके अपनी समसामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना प्रत्येक अर्थव्यवस्था की चुनौती रही है। कोई भी अर्थव्यवस्था जैसे ही एक श्रेणी की वस्तुओं और सेवाओं को उपलब्ध कराने में सफल होने की स्थिति में आती है विकास के नये स्तर में उच्चतर श्रेणी की वस्तुओं एवं सेवाओं की मांग प्रारंभ हो जाती है। इस प्रकार अपनी जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा करने का यह दौर प्रत्येक इकोनॉमी में चलता रहता है और यह प्रक्रिया कभी नहीं खत्म होने वाली है।

अर्थव्यवस्था के प्रकार (Types of Economy)

किसी अर्थव्यवस्था में उनके क्षेत्रकों का सकल आय में क्या योगदान है और कितने लोग उन पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर हैं, इन बातों के आधार पर भी अर्थव्यवस्थाओं का नामकरण होता है:

1. कृषक अर्थव्यवस्था (Agrarian Economy)

अगर किसी अर्थव्यवस्था के सकल उत्पादन (जीडीपी) में प्राथमिक क्षेत्र का योगदान 50 % या इससे अधिक हो तथा लोगों की आजीविका के लिए भी ऐसी ही निर्भरता हो तो वह कृषक अर्थव्यवस्था कही जाती है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के समय भारत एक ऐसी ही अर्थव्यवस्था था; लेकिन आज इसकी सकल आय में हिस्सा घटकर 17 प्रतिशत के आस-पास रह गया है। इस दृष्टिकोण से भारत एक कृषक अर्थव्यवस्था नहीं लगता, लेकिन आज भी इस क्षेत्र पर भारत के लगभग 49 प्रतिशत लोग अपनी आजीविका (Livelihood) के लिए निर्भर हैं। यह एक विशेष परिस्थिति है, जहां सकल आय में प्राथमिक क्षेत्र का योगदान जिस अनुपात में घटा है आजीविका के लिए इस पर लोगों की निर्भरता उस अनुपात में नहीं घटी है-जनसंख्या का एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र की ओर गमन नहीं हुआ है।

2. औद्योगिक अर्थव्यवस्था (Industrial Economy)

ऐसी अर्थव्यवस्था में सकल आय में द्वितीयक क्षेत्र का हिस्सा 50 % या इससे अधिक रहता है तथा इसी अनुपात में इस क्षेत्रक पर लोगों की आजीविका के लिए निर्भरता भी रहती है। पूरा-का-पूरा यूरोप-अमेरिका इस स्थिति में रहा था, जब उन्हें औद्योगीकृत अर्थव्यवस्था का नाम दिया गया था। यह स्थिति भारत में अभी तक नहीं आयी-न तो द्वितीयक क्षेत्र का योगदान इस स्तर तक बढ़ा और न ही इस पर जनसंख्या की निर्भरता ही बढ़ी।

3. सेवा अर्थव्यवस्था (Service Economy)

ऐसी अर्थव्यवस्था जिसके अंतर्गत सकल आय में तृतीयक क्षेत्र का योगदान 50 प्रतिशत या उससे ज्यादा होता है तथा जनसंख्या इसी अनुपात में इस पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर करती है उसे सेवा अर्थव्यवस्था कहते हैं। भारत में इस क्षेत्रक की भूमिका वर्ष 2003-04 से काफी बढ़ गयी है तथा जी.डी.पी. में इसका हिस्सा 55 प्रतिशत से भी अधिक बना हुआ है19वीं सदी के अंत तक, कम-से-कम पश्चिमी देशों में तो यह सत्यापित हो चुका था कि औद्यौगिक गतिविधियां कृषिगत गतिविधियों की तुलना में आय अर्जित करने का बेहतर और तेज तरीका है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह मान्यता पूरी दुनिया में मान्य हो गई और सभी देशों में औद्योगीकरण की होड़ शुरू हो गई। जब कई देशों ने औद्योगीकरण को कामयाबी के साथ अपना लिया तो आबादी का बड़ा हिस्सा कषि क्षेत्र से उद्योग-धंधों की तरफ आया। इस बदलाव की प्रक्रिया को ही वृद्धि के चरण (Stages of Growth) के रूप में परिभाषित किया गया।

अर्थव्यवस्था का संगठन (Organizing an Economy)

ऐतिहासिक तौर पर नागरिक समाज पर जिस एक मुद्दे ने सबसे ज्यादा प्रभाव डाला है वह अर्थव्यवस्था में उत्पादन की प्रक्रिया की व्यवस्था है। क्या उत्पादन पूरी तरह से सिर्फ सरकार या राज्य की जिम्मेदारी होनी चाहिए? या फिर इसमें निजी क्षेत्र को भी काम करने की मंजूरी होनी चाहिए? या फिर संयुक्त उपक्रम सबसे बेहतर उपाय है- राज्य और निजी क्षेत्र की साझेदारी का उपक्रम।

संबंधित देशों की समसामयिक विचारधारा के अनुरूप विश्व में अर्थव्यवस्था को संगठित करने की अब तक तीन प्रणालियां उद्भूत हुई हैं। अर्थशास्त्र की बेहतर समझ के लिए इनका संक्षिप्त विवरण आवश्यक है:

1. पूँजीवादी अर्थव्यवस्था (Capitalistic Economy)

1776 में प्रकाशित एडम स्मिथ की मशहर किताब ‘द वेल्थ ऑफ नेशंस‘ को पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का उद्गम स्रोत माना जाता है। एडम स्मिथ (1723-1790) स्कॉटलैंड में जन्मे दार्शनिक-अर्थशास्त्री थे। यूनिवर्सिटी ऑफ ग्लासगो के प्रोफेसर स्मिथ के लेखन ने कुछ खास विचारों को जन्म दिया, पश्चिमी देशों में लोकप्रिय हुए और अंततः पूँजीवाद का जन्म हुआ। उन्होंने तब वाणिज्य और उद्योग में सरकार के ज्यादा नियमन के खिलाफ आवाज उठाई थी। इस नियमन की वजह से अर्थव्यवस्था का विकास उस रफ्तार से नहीं हो पा रहा था जिस रफ्तार से हो सकता था। उनके मुताबिक इसके चलते ही लोगों की आर्थिक स्थिति भी बेहतर नहीं हो पा रही थी। उन्होंने ‘श्रम विभाजन’ पर जोर देते हुए कहा था कि अर्थव्यवस्था में सरकारी अहस्तक्षेप (Noninterference by the government) की नीति अपनाई जानी चाहिए। उन्होंने अपने सैद्धांतिक प्रस्ताव में बताया कि ‘बाजार की शक्तियों’ के ‘अदृश्य हाथ’ (invisible hand) देश में संतुलन की स्थिति को लाएंगे और आम लोगों की स्थिति बेहतर होगी। लोकहित के लिए कोई अर्थव्यवस्था काम करे, इसके लिए स्मिथ ने बाजार में प्रतिस्पर्धा’ को जरूरी माना था। जब संयुक्त राज्य अमेरिका स्वतंत्र हुआ तो उसने एडम स्मिथ के विचारों को अपनी नीतियों में शामिल कर लिया। यह एडम स्मिथ की किताब ‘वेल्थ ऑफ नेशन्स’ के प्रकाशित होने के एक साल बाद ही हो गया। इसके बाद स्मिथ के विचार दूसरे यूरोपीय और अमेरिकी देशों में फैले। 1800 आते-आते वहां की अर्थव्यवस्था को पूँजीवादी अर्थव्यवस्था कहा जाने लगा जिसके, बाद में, कई और नाम भी प्रचलित हुए-प्राइवेट इंटरप्राइजेज सिस्टम, फ्री इंटरप्राइजेज सिस्टम और मार्केट इकॉनोमी।

इस व्यवस्था में क्या उत्पादन करना है, कितना उत्पादन करना है और उसे किस कीमत पर बेचना है, ये सब बाजार तय करता है तथा इस आर्थिक व्यवस्था में सरकार की कोई आर्थिक भूमिका नहीं होती है।

2. राज्य अर्थव्यवस्था (State Economy)

अर्थव्यवस्था के इस प्रारूप का सिद्धांत जर्मन दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने (1818-1883) दिया था, जो एक व्यवस्था के तौर पर पहली बार 1917 की वोल्शेविक क्रांति के बाद सोवियत संघ में नजर आई और इसका आदर्श रूप चीन (1949) में सामने आया। यह अर्थव्यवस्था पूर्वी यूरोप के कई देशों में प्रचलित हुई। राज्य अर्थव्यवस्था की दो अलग-अलग शैलियां नजर आती हैं, सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था को समाजवादी अर्थव्यवस्था कहते हैं, जबकि 1985 से पहले तक चीन की अर्थव्यवस्था को साम्यवादी अर्थव्यवस्था कहते हैं। समाजवादी अर्थव्यवस्था में उत्पादन के साधनों पर सामूहिक नियंत्रण की बात शामिल थी। और अर्थव्यवस्था को चलाने में सरकार की बड़ी भूमिका थी वहीं साम्यवादी अर्थव्यवस्था में सभी संपत्तियों पर सरकार का नियंत्रण था यहां तक कि श्रम संसाधन भी सरकार के अधीन ही थे। इसमें सरकार के पास सारी शक्तियां मौजूद होती हैं। मार्क्स के मुताबिक समाजवाद, साम्यवाद के रास्ते में बदलाव का समय है लेकिन यह वास्तविकता में कभी हो नहीं पाया। र __ मूल रूप से इस अर्थव्यवस्था की उत्पत्ति ही पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की लोकप्रियता के विरोध में हुई। इसमें सभी विपरीत बातों को शामिल किया गया। इसमें उत्पादन, आपूर्ति और कीमत सबका फैसला सरकार द्वारा लिया जाता है। ऐसी अर्थव्यवस्थाओं को केंद्रीकृत नियोजित अर्थव्यवस्था कहते हैं, जो गैर-बाजारी अर्थव्यवस्था होती है।

समाजवादी और साम्यवादी अर्थव्यवस्था पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की शोषण के नाम पर आलोचना करती हैं। इसके जवाब में पूँजीवादी अर्थशास्त्री इसे राज्य पूँजीवाद (State Capitalism) कहते हैं, जहां केवल सरकार शोषक होती है। 1980 के मध्य तक साम्यवादी और गैर-साम्यवादी नजरिए से बौद्धिक जमात में गंभीर बहस हुआ करती थी।

3. मिश्रित अर्थव्यवस्था (Mixed Economy)

बाजार के पास खुद को सही करने के गुण और एडम स्मिथ के अदृश्य हाथ (invisible hand) वाली अर्थव्यवस्था को 1929 की आर्थिक महामंदी में बड़ा झटका लगा। अमेरिका ही नहीं पश्चिम यूरोप के कई देशों को भी इस महामंदी ने अपनी चपेट में ले लिया था, जिसके चलते भारी बेरोजगारी, मांग और आर्थिक गतिविधियों में कमी और उद्योग-धंधों पर तालाबंदी की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। स्मिथ के विचार इन समस्याओं से उबरने में नाकाम रहे। ऐसे समय में एक नए नजरिए ने जन्म लिया, जो मशहूर किताब

‘द जनरल थ्योरी ऑफ एंप्लायमेंट, इंटरेस्ट एण्ड मनी’ (1936) में – शामिल है। इसे देने वाले मशहूर ब्रिटिश अर्थशास्त्री एवं कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉन मेनार्ड केंस (1883-1946) थे।

वाशिंगटन सहमति (Washington Consensus)

अर्थव्यवस्था और अर्थव्यवस्था के प्रकार The Economy & Its Type
Washington Consensus

‘वाशिंगटन सहमति’ शब्दावली अमेरिकी अर्थशास्त्री जॉन विलियमसन द्वारा 1989 में प्रयुक्त की गई। इसके अंतर्गत उन्होंने तत्कालीन Latin अमेरिकी देशों के लिए नीतिगत सुधार सुझाए जिन पर वाशिंगटन स्थित IMF तथा World Bank जैसी संस्थाओं की भी सहमति थी और वे इन्हें इन देशों को संकट से उबारने के लिए जरूरी मानती थीं। इन नीतिगत सुधारों के निम्नलिखित 10 आयाम थेः

(i) वित्तीय अनुशासन

(ii) सार्वजनिक खर्च की प्राथमिकताओं को ऐसे क्षेत्रों की ओर पुनर्निर्देशित करना जिनसे उच्च लाभ एवं आय के वितरण की संभावना हो, जैसे-प्राथमिक स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा तथा आधारभूत संरचना

(ii) कर सुधार (सीमांत दरों में कमी तथा कराधार को बड़ा करना)

(iv) ब्याज दर उदारीकरण

(v) प्रतिस्पर्धापूर्ण विनिमय दर

(vi) व्यापार उदारीकरण

(vii) प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के अंत:प्रवाह का उदारीकरण

(viii) निजीकरण

(ix) विनियमन (प्रवेश एवं विकास में बाधाओं को दूर करने के अर्थ में)

(x) संपत्ति अधिकारों की सुरक्षा।

हालाँकि आने वाले समय में, यह शब्दावली ‘नव-उदारवाद’ (Latin अमेरिका में), ‘बाजारवादी रूढ़िवाद’ (जैसा कि 1998 में जॉर्ज सोरोस ने कहा), यहाँ तक कि पूरी दुनिया में भूमंडलीकरण’ की समानार्थक हो गई। यह ऐसे अति विश्वास और अंधी प्रतिबद्धता दर्शाने के लिए भी प्रयुक्त हुई कि बाजार कैसी भी स्थिति संभाल सकता है।

अर्थव्यवस्था के क्षेत्र (Sectors of An Economy)

प्रत्येक अर्थव्यवस्था अपनी आर्थिक गतिविधियों को आय अर्जन के मामले में महत्तमीकृत करना चाहती है ताकि आर्थिक गतिविधियाँ लाभकारी से और अधिक लाभकारी हो सकें। चाहे आर्थिक संगठन की व्यवस्था कुछ भी हो अर्थव्यवस्था की आर्थिक गतिविधियों को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में बांटा गया है, जिन्हें अर्थव्यवस्था का क्षेत्रक (Sector) कहा जाता है:

1. प्राथमिक क्षेत्र (Primary Sector)

अर्थव्यवस्था का वह क्षेत्र जहाँ प्राकृतिक संसाधनों को कच्चे तौर पर प्राप्त किया जाता है; यथा-उत्खनन, कृषि कार्य, पशुपालन, मछली पालन, इत्यादि। इसी क्षेत्रक को कृषि एवं संबद्ध गतिविधियां (agriculture and allied activities) भी कहा जाता है।

2. द्वितीयक क्षेत्र (Secondary Sector)

अर्थव्यवस्था का वह क्षेत्र जो प्राथमिक क्षेत्र के उत्पादों को अपनी गतिविधियों में कच्चे माल (raw material) की तरह उपयोग करता है द्वितीयक क्षेत्र कहलाता है। उदाहरण के लिए लौह एवं इस्पात उद्योग, वस्त्र उद्योग, वाहन, बिस्किट, केक इत्यादि उद्योग। वास्तवमें इस क्षेत्रक में विनिर्माण (manufacturing) कार्य होता है यही कारण है कि इसे औद्योगिक क्षेत्रक भी कहा जाता है।

3. तृतीयक क्षेत्र (Tertiary Sector)

इस क्षेत्रक में विभिन्न प्रकार की सेवाओं का उत्पादन किया जाता है; यथा-बैंकिंग, बीमा, शिक्षा, चिकित्सा, पर्यटन इत्यादि। इस क्षेत्र को सेवा क्षेत्र के रूप में भी जाना जाता है।

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